देव दीपावली : मनाये जाने की ये हैं वजह और किसने किया काशी में गंगा आरती की शुरुआत
पुरे 365 दिनों की तैयारी एक बार फिर कार्तिक पूर्णिमा के ठीक एक दिन पहले जब सूर्य अपनी लालिमा के साथ पश्चिम दिशा के तरफ जा चुका होगा सांझ के ऐसी ही पल में काशी के धनुषाकार घाटों के पूर्व दिशा में बिना पूर्णिमा की चाँद अपने आने का आभास के दीपों की चमकीली आभा बांहे पसार सुरसरी के पथरीले तट पर असंख्य कतारों की एक आभा मंडल अपनी छटा से सारे जहा को अवलोकित करेगा । इस अदभुत अद्वितीय और रोमांचकारी विह्ंगम दृश्य को देखने और धन्य होने के लिए गंगा धार के समानान्तर प्रवाहित दीप गंगा को निहारने लाखों लोग का असंख्य भीड़ होगा । ऐसा इसलिए क्योंकि विश्व की अद्भुत नगरी पवित्र काशी में पूर्णिमा तिथि पर देवताओं ने दीप जलाकर दीपावली मनाई थी।
देव दीपावली का उल्लेख निर्णय सिन्धु एवं स्मृति कौस्तुभी में है। काशी में इसकी शुरुआत पुरातन काल से मानी जाती है। हालांकि देव दीपावली के विह्ंगम दृश्य की पृष्ठभूमि में पूर्व काशी नरेश स्वर्गीय डा. विभूति नारायण सिंह की भूमिका अहम है। संन 1986 में पंचगंगा पर महाराज का सपना मूर्त रूप लिया। इसके बाद घाट की सीढ़ियों, मढ़ियों और मंदिरों को दीपों को लड़ियों से सजाना आरम्भ हुआ साथ ही संध्या आरती की प्रभा भी शुरू हो गयी। धीरे धीरे अस्सी से राजघाट तक की सजावट का दायरा बढ़ा और सामनेघाट से आदिकेशव घाट को पार करते हुए शहर के विभिन्न कुंडों, सरोवरों और मंदिरों में पीली लौ की चमक बिखर लगी ।
चार लक्खा मेले में शुमार
रथयात्रा मेला, नाटी इमली का भरत मिलाप, चेतगंज की नक्कटैया और तुलसी घाट की नागनथैया के बाद पांचवें लक्खा मेले के रूप देव दीपावली भी पहचान बना लिया है । इस अद्भुत आयोजन को पंचगंगा घाट यानि जहां कभी गंगा के अलावा यमुना, सरस्वती, धूतपापा और किरणा नदियों का संगम तट रहा। यह ऋषि अग्निबिंदू की तपोभूमि रही। इसी पवित्र स्थल पर 17वीं सदी के उत्तरार्ध में अहिल्याबाई होल्कर ने ” हजारा दीपस्तंभ ” का निर्माण कराया जो आज इस परम्परा का द्योतक है। आधुनिक देव दीपावली का श्री गणोश करीब ढाई दशक पूर्व यहीं से हुआ था। पंचगंगा घाट का यह “हजारा दीपस्तंभ” देव दीपावली के दिन 1001 से ज्यादा दीपों की लौ से जगमगा उठता है और इसके प्रज्ज्वलित होने के साथ ही घाटों पर दीप जलाये जाते हैं।
मान्यताएं या कथाएं
इस सन्दर्भ में दो पौराणिक मान्यताएं या कथाएं प्रचलित हैं। काशी के प्रथम शासक “दिवोदास” द्वारा अपने राज्य बनारस में देवी-देवताओं का प्रवेश बंद कर दिया गया। छिपे रूप में देवगण कार्तिक मास पंचगंगा घाट पर पवित्र गंगा में स्नान को आते रहे। कालान्तर में राजा को प्रभावित कर यह प्रतिबंध हटा लिया गया। इस विजय को हर्षोल्लास से मनाने के लिए समस्त देवी-देवता बनारस में दीप मालाओं से सुसज्जित विजय दिवस मनाने एवं भगवान शिव की महाआरती के लिए कार्तिक पूर्णिमा में पधारे थे। तभी से देव दीपावली मनायी जाती है।
दूसरी कथा के अनुसार “त्रिपुर” नामक दैत्य पर विजय के पश्चात देवताओं ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन अपने सेनापति कार्तिकेय के साथ शंकर की महाआरती और नगर को दीपमालाओं से सुसज्जित कर विजय दिवस मनाया था।
आरती की परम्परा
वर्तमान गंगोत्री सेवा समिति के संस्थापक अध्यक्ष पं. किशोरी रमण दूबे (बाबू महाराज) ने दशाश्वमेध घाट पर इसकी शुरुआत की थी जिनके उनके साथ सत्येन्द्र मिश्रा, दुदु कलापात्र, राज कुमार तिवारी और गुल्लू महाराज थे । उस वक्त आज की भव्य आरती चौकी पर मिट्टी की धुनोची में कपूर रख कर होता था । लेकिन ये आरती ख़ास अवसरों पर ही हुआ करते थे , समय बीतने के साथ सन 14 नवम्बर 1997 से नित्य आरती का सिलसिला शुरू हुआ, जो आज भी जारी है। कालांतर में दूसरी आरती गंगा सेवा निधि के स्व सतेंद्र मिश्र ने राजेंद्र प्रसाद घाट पर शुरु की। घाट आरती के विस्तार में वागिश दत्त शास्त्री और मंगला गौरी के महंथ की भूमिका बेहद ख़ास रहा हैं। आज आलम यह है कि बनारस के सभी 84 घाट पर देव दीपावली को आरती सम्मपन होता है जबकि शेष दिनों भी लगभग एक दर्जन से अधिक घाटों पर नित्य आरती सम्पन हो रहे है।
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