Home 2022 जानिए, अग्नि देवता की पूरी बातें, स्वाहा से संबंध इनके पुत्र पुत्रियों का नाम

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जानिए, अग्नि देवता की पूरी बातें, स्वाहा से संबंध इनके पुत्र पुत्रियों का नाम

हरिवंश पुराण के अनुसार एक बार जब असुरों ने देवताओं को पराजित किया तो अग्निदेव ने क्रोधित होकर उनके वध का निश्चय किया। वे अत्यंत तेज से सभी असुरों को भस्म करने लगे। इससे डर कर असुरों ने स्वर्ग का त्याग कर दिया। मय दानव और शम्बरासुर ने माया से वर्षा का निर्माण किया जिससे अग्नि क्षीण पड़ने लगी। तब देवगुरु बृहस्पति ने अग्नि को सदैव तेजस्वी रहने का आशीर्वाद दिया।

ब्रह्मपुराण के अनुसार अग्नि का एक भाई था जिसका नाम जातवेदस था। वो हविष्य को लाने और ले जाने वाला था। एक बार मधु नामक दैत्य ने उसका वध कर दिया। ये देख कर अग्निदेव दुःख से स्वर्ग छोड़ कर जल में जाकर बस गए जिससे स्वर्ग बड़े संकट में आ गया। तब इंद्र के नेतृत्व में सभी देवता अग्निदेव को वापस स्वर्ग ले जाने आये। इस पर अग्निदेव ने कहा कि दैत्यों से रक्षा के लिए उन्हें शक्ति चाहिए। इसपर इंद्र और सभी देवताओं ने उन्हें हर यज्ञ का पहला भाग देने का वचन दिया जिससे प्रसन्न होकर वे वापस स्वर्गलोक आ गए।

ब्रह्मपुराण के अनुसार ही जब अग्नि महादेव के तेज को ना संभाल पाए तो उन्होंने उसे जल में उंढेल दिया जहाँ कृतिकाओं से कार्तिकेय की उत्पत्ति हुई। जब वे वापस अपनी पत्नी स्वाहा के पास आये तो उन्होंने देखा कि उनके मुख में महादेव का थोड़ा सा तेज बच गया है। इसे उन्होंने अपनी पत्नी स्वाहा को दिया जिससे एक पुत्र और एक पुत्री का जन्म हुआ। पुत्र का जन्म सुवर्ण और पुत्री का सुवर्णा रखा गया। दैवयोग से दोनों व्यभिचारी हो गए। तब देवों और दैत्यों ने उन्हें सर्वगामी हो जाने का श्राप दे दिया। बाद में ब्रह्मदेव के प्रेरणा से उन्होंने महादेव की तपस्या की और श्राप से मुक्ति पायी। जिस स्थान पर उन्होंने तपस्या की उसे तपोवन कहा गया।

एक कथा के अनुसार महर्षि वेद के शिष्य उत्तंक ने जब उनसे गुरुदक्षिणा लेने का अनुरोध किया तब उन्होंने उससे महाराज पौष्य की पत्नी का कुण्डल मांग लिया। तब उत्तंक महाराज के पास पहुंचे और रानी के कुण्डलों की कामना की जिसे राजा ने दे दिया। रानी ने उन्हें सावधान किया कि तक्षक भी इस कुण्डल को पाना चाहता है इसलिए वे सतर्क रहें। मार्ग में जब उत्तंक कुण्डलों को रख कर स्नान करने लगे तब तक्षक उन कुण्डलों को लेकर पाताल भाग गया। तब उत्तंक ने अग्निदेव की तपस्या की और उनकी कृपा से उन कुण्डलों को पुनः प्राप्त किया।

अग्निदेव बहुत जल्दी क्रुद्ध होने वाले देव हैं। साथ ही उनकी भूख भी अत्यंत तीव्र है। महाभारत में अग्निदेव की भूख शांत करने के लिए अर्जुन और श्रीकृष्ण ने उन्हें खांडव वन को खाने को कहा। उसी वन में तक्षक भी रहता था जिसकी रक्षा के लिए स्वयं इंद्र आये। तब श्रीकृष्ण और अर्जुन ने इंद्र को रोका जिससे अग्नि से समस्त वन को खा लिया। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने अर्जुन को “गांडीव” नामक अद्वितीय धनुष और एक दिव्य रथ प्रदान किया।

वैदिक ग्रंथों में अग्निदेव को लाल रंग के शरीर के रूप में वर्णित किया गया है, जिसके तीन पैर, सात भुजाएं, सात जीभ और तेज सुनहरे दांत होते हैं। अग्नि देव दो चेहरे, काली आँखें और काले बाल के साथ घी के साथ घिरे होते हैं। अग्नि देव के दोनों चेहरे उनके फायदेमंद और विनाशकारी गुणों का संकेत करते हैं। उनकी सात जीभें उनके शरीर से विकिरित प्रकाश की सात किरणों का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनका वाहन भेड़ है। कुछ छवियों में अग्नि देव को एक रथ पर सवारी करते हुए भी दिखलाया गया है जिसे बकरियों और तोतों द्वारा खींचा जा रहा होता है।

विज्ञान में भी अग्नि को ही सृष्टि की सर्वोत्तम खोज माना गया है। स्वयं सूर्यदेव भी अग्निदेव की सहायता से ही प्रकाशमान रहते हैं और पृथ्वी का पोषण करते हैं। अग्नि के बिना मनुष्यों की कोई गति नहीं है। जन्म से लेकर मृत्यु तक हमें अग्नि की आवश्यकता होती है। जन्म के समय अग्नि की आवश्यकता होती है, विद्या अर्जन में अग्नि महत्वपूर्ण है, मित्रता भी अग्नि के समक्ष ही होती है, विवाह में अग्नि को ही साक्षी मान कर वचन दिया जाता है और मृत्यु के पश्चात अग्नि संस्कार द्वारा ही शरीर पंचभूतों में मिलता है।

अग्निदेव का बीजमन्त्र “रं” तथा मुख्य मन्त्र “रं वह्निचैतन्याय नम:” है।


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Author: Admin Editor MBC

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