महाभारत का एक योद्धा जो आज भी है जीवित , इससे जुड़ी क्या हैं कथा
महाभारत युद्ध से पूर्व गुरु द्रोणाचार्य अनेक स्थानो में भ्रमण करते हुए हिमालय (ऋषिकेश) प्हुचे। वहाँ तमसा नदी के तट पर एक दिव्य गुफा में तपेश्वर नामक स्वयंभू शिवलिंग है। यहाँ गुरु द्रोणाचार्य और उनकी पत्नी माता कृपि ने शिव की तपस्या की। इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इन्हे पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया। कुछ समय पश्चात् माता कृपि ने एक सुन्दर तेजश्वी बाल़क को जन्म दिया। जन्म ग्रहण करते ही इनके कण्ठ से हिनहिनाने की सी ध्वनि हुई जिससे इनका नाम अश्वत्थामा पड़ा। जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी। जो कि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी।
अश्वत्थामा को मिला अमरत्व का श्राप
यह कहानी है कुरुक्षेत्र की कौरवों और पांडवों के बीच महासंग्राम चल रहा था |रिश्तों के बीच एक महा युद्ध लड़ा जा रहा था और आखिरकार महाभारत का निर्णायक समय आ चुका था कौरव के महारथी मारे जा चुके थे |जीत अब पांडवों के बहुत करीब थी लेकिन कौरवों के बीच एक योद्धा अभी भी बचा हुआ था और वो था अश्वत्थामा |
अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र से पाण्डवों के कुल को समाप्त करने का प्रयास किया| जिसकी वजह से श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के पतित कर्मों के कारण ही अश्वत्थामा को अमर होने का श्राप दिया था और उसके मस्तक से अमूल्य मणि निकल ली कि जिस प्रकार तूने पतित कर्म कर द्रोपदी की ममता को सदा के लिए शोक संतप्त दिया है उसी तरह तू भी इस मणि के विच्छेदित किए जाने से हुए घाव के साथ अनंतकाल पर्यंत जीवित रहेगा, तेरी मृत्यु नही होगी । तू शारीरिक और मानसिक आघातों की पीड़ा भोगता हुआ उस दुःख को अनुभव कर सकेगा जो तूने दूसरों को दिए हैं और कभी शांति को प्राप्त नहीं होगा, इसके पश्चात ही अश्वत्थामा को कोढ़ रोग हो गया था। आज भी वह मस्तक मणि-विच्छेदन से हुए रिसते धाव के साथ अशांत होकर यत्र-तत्र विचरण कर रहा है|
अर्जुन को गुरुपुत्र पर दया ही आई और उसने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के समक्ष उपस्थित किया। पशु की तरह बँधे हुये गुरुपुत्र को देखकर ममतामयी द्रौपदी का कोमल हृदय पिघल गया। उसने गुरुपुत्र को प्रणाम कर उसे बन्धनमुक्त करने के लिये अर्जुन से कहा,
“हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं, ब्राह्मण सदा ही पूजनीय होता है और उसका वध पाप है। इनके पिता से ही आपने इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञानार्जन किया है। पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बन्दी रूप में खड़े हैं। इनके वध से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्र शोक में विलाप करेंगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। कृपी की आत्मा निरन्तर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्र लौट कर तो नहीं आ सकते! अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिये।”
द्रौपदी के इन न्याय तथा धर्मयुक्त वचनों को सुन कर सभी ने उसकी प्रशंसा की किन्तु भीम का क्रोध शांत नहीं हुआ। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, “हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दण्ड न देना भी पाप है। अतः तुम वही करो जो उचित है।” उनकी बात को समझ कर अर्जुन ने अपने खड्ग से अश्वत्थामा के केश विच्छेदित कर डाले और उसकी मस्तक मणि का भी विच्छेदन कर डाला। मणि-विच्छेदन से वह श्रीहीन हो गया। श्रीहीन तो वह उसी क्षण हो गया था, जब उसने निर्दोष निद्रामग्न बालकों का वध किया था। किन्तु केश मुंड जाने और मणि-विच्छेदन से वह और भी श्रीहीन हो गया और उसका मस्तक झुक गया। अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से निष्कासित कर दिया।
– जया पाण्डेय
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