जानिए कौन है दक्षिणामूर्ति शिव, काशी में कहां है स्थित, क्या है महत्ता
भगवान शिव की नगरी काशी ब्रह्मांड के समस्त तीथों से परिपूर्ण एवं पग पग पर शिवलिंग तीर्थ एवं देवी देवताओं को धारण किए होने के साथ पृथ्वी पर होते हुए भी पृथ्वी से भिन्न है। काशी में भगवान दक्षिणामूर्ति का भी एक अति प्राचीन मंदिर है यह सभी नहीं जानते होगे।
ॐ वृषभध्वजाय विद्महे घृणिहस्ताय धीमहि तन्नो दक्षिणामूर्ति प्रचोदयात् ।।
दक्षिणामूर्ति सभी प्रकार के ज्ञान के गुरु (शिक्षक) के रूप में भगवान शिव का एक स्वरूप है। शिव का यह स्वरूप मूल आदि गुरु के रूप में सर्वोच्च या परम जागरूकता समझ और ज्ञान के रूप में उनका अवतार है। यह रूप शिव को योग संगीत और ज्ञान के शिक्षक के रूप में और शास्त्रों पर विस्तार देने का प्रतिनिधित्व करता है। उन्हें ज्ञान पूर्ण और पुरस्कृत ध्यान के देवता के रूप में पूजा जाता है। सनातन शास्त्रों के अनुसार यदि किसी व्यक्ति का कोई गुरु नहीं है, वह दक्षिणामूर्ति को अपना गुरु मान सकता है और उसकी पूजा कर सकता है। यदि वे योग्य है तो उन्हें एक आत्म-साक्षारकार मानव गुरु का आशीर्वाद प्राप्त होगा।
काशी में स्थित
श्री दक्षिणामूर्ति, जटार घाट
श्री दक्षिणामूर्ति जटार घाट और रामघाट के मध्य शिव के दक्षिणामूर्ति स्वरूप का यह मंदिर घाट से सटा हुआ पड़ता है। भगवान दक्षिणामूर्ति का यह विग्रह जिनका मुख दक्षिण दिशा की ओर है। यह मंदिर अति प्राचीन है, वर्तमान में यह एक घर के प्रांगण में हो गया है।
श्री दक्षिणामूर्ति, दक्षिणामूर्ति मठ, मिसिर पोखरा
श्री दक्षिणामूर्ति मठ मिसिर पोखरा (ध्रुव कुंड काशी की स्थापना महामण्डलेश्वर श्री स्वामी महेशानन्द गिरि जी महाराज के द्वारा 19 वी शताब्दी में की गई थी। भगवान का यह विग्रह भी उसी समयावधि में स्थापित किया गया था।
दक्षिणामूर्ति भगवान शिव का एक स्वरूप है जहाँ उन्हें योग, संगीत और विज्ञान के गुरु (शिक्षक) के रूप में दर्शाया गया है। उन्हें दक्षिणामूर्ति के रूप में जाना जाने लगा क्योंकि उन्होंने ऋषियों को दक्षिण (दक्षिण दिशा) की ओर मुख करके योग और ज्ञान की शिक्षा दी थी श्री आदि शंकराचार्य ने अपने श्री दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम् में भगवान शिव के इस रूप की प्रशंसा की है।
दक्षिणामूर्ति को मुख्य रूप से चार अलग-अलग स्वरूपों में देखा जाता है. योग के शिक्षक के रूप में वीणा के शिक्षक के रूप में, ज्ञान के शिक्षक के रूप में और अन्य विभिन्न शास्त्रों के शिक्षक के रूप में।
वटतरोर्मूले वृद्धा शिष्या गुरुवा गुरोस्तु मौन व्याख्यानं शिष्यास्तु विसंशयाः ||
अर्थात् गुरु का बड़ा अदभुत है, श्री दक्षिणामूर्ति गुरु भगवान तो युवा है और शिष्य वृद्ध है वह शिष्यों के संशय को मौन रहते हुये छिन्न अर्थात समाप्त कर रहे हैं।
वटविटपिसमीपे भूमिभागे निषण्ण सकलमुनिजनानां ज्ञानदातारमारात्। त्रिभुवनगुरुमीशं दक्षिणामूर्तिदेव जननमरण खच्छेददक्ष नमामि ॥
अर्थात् “वट वृक्ष की छाया में भूमि आसन पर पद्मासन में विराजमान चार भुजा वाले भगवान दक्षिणामूर्ति सभी मुनियों को मौन रूप से ज्ञान देने वाले त्रिभुवनपति जन्म और मृत्यु जन्य दुःख को समाप्त करने में दक्ष, उनका हम नमन करते है।
– सुधांशु पाण्डेय
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