चन्द्रेश्वर महादेव : काशी खण्डोक्त लिंग में वर्णित चन्द्रेश्वर महादेव की पूरी कथा, जानिए जन्म, तपस्या और दर्शन के लाभ, क्या कनेक्शन हैं सोमवती अमावस्या से
पूर्वकाल में प्रजा एवं सृष्टि के विधानेक्षु ब्रम्हा जी के मन से ही चन्द्र देव के पिता अत्रि ऋषि उतप्पन हुये, अत्रि ऋषि ने पहले दिव्य परिमाण से तीन सहस्त्र वर्ष अनुत्तर नामक सर्वोत्कृष्ट तपस्चर्या की थी ।
उसी समय अत्रि मुनि का उधर्वगत रेत सोमत्व को प्राप्त होकर दिकमण्डल को प्रकाशित हुआ और उनके नेत्रों से दस बार क्षरित हुआ ।
तदन्तर ब्रम्हा के आज्ञानुसार दशो दिग्देवीओ ने मिलकर उसे धारण किया पर वे न रख सकी , जब वह दिशाएं उस गर्भ को धारण न रख सकी तब उनके साथ चंद्र भूतल पर निपतित हुये ।
लोक पिता ब्रम्हा ने चंद्र को भूतल पर गिरा देख कर त्रैलोक्य की हीत साधना के इच्छा से उनको रथ पर चढ़ा लिया।
स तेन रथ मुख्येन सागरान्तां वसुन्धरां |
त्रिः सप्तकृत्वो द्रुहिनश्व कारामुं प्रदक्षिणम
ब्रम्हा ने उसी चंद्र को रथ पर प्रधान बनाकर इक्कीस बार उसकोसमुद्रान्त पृथ्वी की प्रदक्षिणा करायी , उनका द्रवित जो तेज़ पृथ्वी में गिरा उसी से ये सारी औषधियां उपजी , जिनके द्वारा जगत का धारण होता है ।
स लब्धतेजा भगवान ब्रह्मणा वर्धितः स्वयं |
तपस्तेपे महाभाग पद्मानां दशतीदर्शं ||
अविमुक्तं समासाद्य क्षेत्रं परम् पावनं |
संस्थाप्यं लिङ्ग ममृतं चन्द्रेशाख्यं स्वनामतः ||
हे महाभाग , स्वयं ब्रह्मा से वर्धित भगवान चंद्र तेज़ पाने पर परम् पावन अविमुक्त क्षेत्र को प्राप्त होकर और स्वनामनुसार चन्द्रेश्वर नामक अमृत लिंग की स्थापना कर एक सौ पद्म प्रमाण वर्ष पर्यंत तपस्या ही करते रहे और महादेव विश्वेश्वर के प्रसाद से बीज , औषधि , जल , और ब्राह्मणों के राजा हुये।
चंद्र ने तपोनुष्ठान ही के समय वहाँ पर एक अमृतोद नामक कूप (चन्द्र कूप) प्रस्तुत किया था, जिसके पान और स्नान से मनुष्य अज्ञान से छुटकारा पा जाता है, स्वयं महादेव ने तपस्या से संतुष्ट होकर जगत संजीवनी नामक उस चंद्र की एक कला को लेकर अपने शिर पर धारण कर लिया ।
चंद्र ने काशी में चन्द्रेश्वर के सन्मुख ही परम दुष्कर तपस्या और राजसूय यज्ञ पूर्ण किया, उसी स्थान पर ब्राह्मणों ने प्रसन्न होकर चन्द्र को यह कहा कि त्रैलोक्य की दक्षिणा के दाता श्री चन्द्र ही हमलोग के राजा है ।
चन्द्र देव उसी स्थान पर ही महादेव के वाम नेत्र स्थान को प्राप्त हुये। शिव जी ने चन्द्र से कहा कि तुम्हारे तप के फलस्वरूप तुम आज से मेरी दूसरी मूर्ति हो, संसार तुम्हारे उदय से सूखी होगा। तुम्हारी अमृतमय किरण के स्पर्श मात्र से सूर्य के ताप से व्याप्त यह चराचर जगत अपनी संताप की गर्मी को छोड़ देगा ।
इस काशी में तुमने जो बड़ी कठिन तपस्या की है और यह यग्यो का फल पा कर तुमने जो मेरा चन्द्रेश्वर नामक लिंग की स्थापना किया है इसी लिंग में प्रतिमास की पूर्णमासी को त्रिभुवन के ऐश्वर्य सहित मैं दिन और रात्रि में निवास करूंगा, पूर्णिमा के दिन यहां जो भी जप तप हवन दान, ब्राह्मण भोजन, जीर्णोद्धार, संपादन नृत्य गीत वाद ध्वजारोपण इत्यादि थोड़े मात्रा में भी करेगा वह अनंत फलदायक होगा ।
सोमवती अमावस्या के दिन चन्द्रकूप के जल स्नान करके विधिवत संध्या तर्पण समस्त उदक क्रियाओ को समाप्त कर के श्राद्ध एवं पिंड दान करने से गया में श्राद्ध करने का फल प्राप्त होता है ।
शिव जी कहते है कि जब भी कोई चन्द्रेश्वर के दर्शन को निकलता है तब सभी पित्रगण बहुत हर्ष से नृत्य करते है और कहते है कि वह चन्द्रकूप तीर्थ पर हमलोग का तर्पण करेगा , यदि दुर्भाग्य बस तर्पण न भी करे तो क्या इस जल को स्पर्श करते ही हमलोग की तृप्ति हो जायेगी , यदि वह जल को स्पर्श भी नही करता अगर सिर्फ देख ही ले तो उसी से हमारा संतोष हो जायेगा ।
काशी में सोमवती अमावस्या पर व्रत करने से मेरे ही अनुग्रह के कारण देव, ऋषि और पित्र ऋण से मुक्त हो जाता है और चन्द्रेश्वर लिंग की पूजा करने वाला अगर काशी के बाहर भी मरने पर पापो को छोड़ कर चन्द्रलोक में वास करता है ।
मंदिर – सिद्धेश्वरी गली , संकठा मंदिर मार्ग , चौक वाराणसी ।
आभार – उमाशंकर गुप्ता
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