Home 2023 कब और कैसे हुई काशी में रथयात्रा मेले की शुरूआत, क्या है मान्यता

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कब और कैसे हुई काशी में रथयात्रा मेले की शुरूआत, क्या है मान्यता

भक्तों के प्रेम में अत्यधिक स्नान करने से बीमार होकर भगवान जगन्नाथ जब स्वस्थ होते हैं तब भक्तों की सुख- समृद्धि और प्रकृति को पल्लवित करने के लिए सैर-सपाटे पर निकलते हैं। पुरी में तो भगवान स्वास्थ्य लाभ और सैर के लिए अपनी मौसी के घर जाते हैं लेकिन काशी में उनका सपरिवार सैर-सपाटा ससुराल में होता है। पुरी में प्रभु रथयात्रा मेले में शामिल होने झूला झूलते हुए जाते हैं लेकिन काशी में डोली पर सवारी निकलती है।

जानिए काशी में कब से हुई रथयात्रा मेले की शुरूआत

काशी में रथयात्रा मेले का इतिहास सदियों पुराना है। मेला कब और कैसे शुरू हुआ इसे लेकर अलग-अलग लोक मान्यताएं भी हैं। करीब 333 वर्ष पहले जगन्नाथपुरी पुरी मंदिर से आए पुजारी ने ही अस्सी घाट पर जगन्नाथ मंदिर की स्थापना की थी। कहा जाता है कि 1690 में पुरी के जगन्नाथ मंदिर के पुजारी बालक दास ब्रह्मचारी वहां के तत्कालीन राजा इंद्रद्युम्न के व्यवहार से नाराज होकर काशी आ गए थे। बाबा बालक दास भगवान को लगे भोग का ही प्रसाद ग्रहण करते थे। एक बार भादों में गंगा में बाढ़ आने की वजह से पुरी से प्रसाद पहुंचाने में पखवारे भर से अधिक का विलंब हो गया। इतने दिन पुजारी भूखे ही भगवान का ध्यान करते रहे। तब भगवान जगन्नाथ ने स्वप्न में उनको प्रेरणा दी कि वह काशी में ही मंदिर की स्थापना कर भोग लगाना शुरू करें। इसके बाद बालक दास ने महाराष्ट्र की एक रियासत के राजा की पहल पर भगवान जगन्नाथ के मंदिर का निर्माण कराया। वर्ष 1700 से उन्होंने काशी में रथयात्रा मेला शुरू कराया। इसके अलावा इस मेले के बारे में एक और प्रसंग मिलता है।

यह भी है मान्यता

कहा जाता है कि वर्ष 1790 में पुरी मंदिर से काशी आए स्वामी तेजोनिधि ने गंगा तट पर रहकर जगन्नाथ मंदिर का निर्माण कराया था। जनश्रुतियों के अनुसार एक बार तेजोनिधि के स्वप्न में भगवान जगन्नाथ आए और पुरी मंदिर के स्वामी रहे तेजोनिधि से कहा कि बाबा विश्वनाथ की नगरी में भी उनकी पूजा होनी चाहिए। इसके बाद स्वामी तेजोनिधि ने स्थानीय भक्तों के सहयोग से रथयात्रा की शुरुआत की।

कैसे शुरू हुई रथयात्रा की परम्परा

मान्यता है कि एक बार देवी सुभद्रा अपनी ससुराल से द्वारिका आई थीं। उन्होंने अपने दोनों भाइयों से नगर दर्शन की इच्छा जताई। कृष्ण और बलराम ने उन्हें एक रथ पर बैठा दिया। दोनों भाई भी अलग-अलग रथों पर सवार हो गए। सुभद्रा का रथ बीच में चल रहा था। तीनों रथारूढ़ होकर द्वारिका पुरी निहारने के लिए निकल पड़े। इसी के बाद से रथयात्रा की परंपरा शुरू हो गई।

पूरी में तीनों रथ के अलग-अलग होते हैं नाम

भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा के रथ अलग-अलग रंगों के बनाए जाते हैं। उन्हें अलग नाम भी दिया जाता है। भगवान जगन्नाथ का रथ नंदीघोष, बलभद्र का रथ कालध्वज और सुभद्रा का रथ देवदलन के नाम से जाना जाता है।


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Author: Admin Editor MBC

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