Home 2023 Pitru paksh – तीन पीढ़ीयों का रिश्ता…आखिर क्या है मायने तर्पण का, क्यों करते है तर्पण

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Pitru paksh – तीन पीढ़ीयों का रिश्ता…आखिर क्या है मायने तर्पण का, क्यों करते है तर्पण


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    पितृ पक्ष आश्विन’ या ‘कुआर’ मास का पहला कृष्ण पक्ष ‘पितृ-पक्ष’ के नाम से प्रख्यात है। वर्ष के इन पन्द्रह दिनों में अन्य किसी भी देवता की पूजा या यज्ञोपवीत, विवाह आदि शुभ कार्य करने का निषेध किया गया है, केवल ‘पितरों’ के ही स्मरण और तर्पण का विधान है।

    भारतीय ऋषियों की यह व्यवस्था उनकी अपूर्व दूर-दर्शिता का एक निराला उदाहरण है। सारे संसार में पूर्वजों की पुण्य स्मृति को सुरक्षित रखने की ऐसी सटीक परम्परा मिलनी दुर्लभ है। आधुनिक युग में प्राचीन संस्कृति, राष्ट्रीय एकता, सामाजिक सद्भाव, पारिवारिक सुख शान्ति की सुरक्षा की आवश्यकता कितनी तीव्रता से अनुभव की जा रही है, यह प्रत्यक्ष ही है। इन सभी को पितृ पक्ष की भावना से बल मिलता है।

    ‘पितृ-पक्ष में १५ दिनों तक प्रति दिन पितरों का तर्पण जो किया जाता है, वह है क्या? थोड़ा ही ध्यान देने से उसके महत्त्व का अनुभव किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने ‘स्वर्गीय पिता, पितामह (पिता के पिता अर्थात् बाबा या दादा), प्रपितामह (बाबा या दादा के पिता) और स्वर्गीय मातामह (नाना), प्रमातामह (नाना के पिता) और वृद्ध प्रमातामह (नाना के बाबा या दादा) आदि के नामों का उच्चारण कर उनके प्रति जलाञ्जलि देनी होती है। साथ ही इन सभी पूर्वजों की धर्म-पत्नियों के भी नामों का उच्चारण कर उन्हें भी जलाञ्जलि अर्पित करनी होती है अर्थात् एक ओर अपनी ‘स्वर्गीया माता, पितामही (दादी) और प्रपितामही (दादा की माता) आदि को, तो दूसरी ओर अपनी स्वर्गीया मातामही (नानी), प्रमातामही (नाना की माता) और वृद्ध-प्रमातामही (नाना की दादी) का स्मरण कर उन्हें जल से तृप्त करना होता है।

    इस प्रकार ‘दो परिवारों की तीन पीढ़ियों’ के दम्पत्तियों का सादर स्मरण करने से उन परिवारों के इतिहास’ की स्मृति सहज ही जागृत होती है और उससे अनूठी प्रेरणा मिलती है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उक्त नामोच्चारण कोरा नहीं किया जाता, नामों के साथ उनके ‘गोत्र’ का भी नामोच्चारण किया जाता है। ‘गोत्र’ अर्थात् उस ऋषि का नाम, जिससे उस परिवार का प्रचलन हुआ है।

    उक्त पद्धति के अनुसार विचार करें यदि किसी व्यक्ति के पुत्र हैं, तो अपनी और अपनी माता की तीन पीढ़ियों का स्मरण करेंगे अर्थात् उस व्यक्ति को अपने निजी परिवार,
    अपनी माता के परिवार और पुत्र के से अपनी पत्नी रहेगा संस्कृति इतिहास और परम्पराको सुरक्षित रखने

    यही नहीं, जिन परिवारों के पूर्वजों का स्मरण इस प्रकार श्रद्धापूर्वक किया जाता रहेगा, उनके वर्तमान में प्रीति-भाव की वृद्धि सहज ही होती रहेगी। इसमें में । एकता की भावना विकसित होगी, जो प्रसारित होकर सारे देशवासियों को एक सूत्र में आबद्ध कर सकेगी।

    आज-कल ‘पितृ-यज्ञ’ की उक्त भावना का लोप हो जाने के कारण ही पति-पत्नी, पिता-पुत्र में मनोमालिन्य की वृद्धि हो रही है। यदि परिवार में अपने सम्बन्धियों का स्मरण प्रति दिन श्रद्धा से होता रहे, तो पारस्परिक सद् भाव में कमी आ ही नहीं सकती। यह तथ्य एक साधारण पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी समझ सकता है।

    पितरों की यह पूजा कितनी सरल और सस्ती है। पितरों की पूजा की सामग्री में ‘कुशा’ नामक घास, तिल, जौ, अक्षत, फूल और तुलसी की पत्तियाँ तथा शुद्ध जल जैसी वस्तुएँ हैं, जिनमें किसी को कोई विशेष खर्चे नहीं करना है।

    ‘पूजा की विधि’ भी सर्वथा सहज है, केवल नामों का उच्चारण करना है और जल छोड़ना है। सारी विधि सम्पन्न करने में अधिक-से-अधिक 25 मिनट का समय लगता है। इतने अल्प समय में न केवल पूरे समाज का | इतिहास अपने ध्यान में आ जाता है, अपितु प्रमुख देवताओं और ऋषियों के नाम भी कण्ठस्थ हो जाते हैं क्योंकि पितृ यज्ञ’ के अङ्ग-रूप में ब्रह्मा-विष्णु-महेशादि देवताओं और सप्तर्षि आदि ऋषियों को भी जलाञ्जलि दी जाती है।

    ‘पितृ-यज्ञ’ शब्द ऋग्वेद (१०/१६/१०) में आया है। यह तीन प्रकार से सम्पादित होता है
    ९. तर्पण द्वारा (मनु ३।७० एवं २८३),
    २. बलि द्वारा (मनु ३।९१) एवं
    ३. प्रति दिन श्राद्ध द्वारा (मनु ३१८२-८३)।”

    ‘मनु’ (२।१७६) के मत से प्रति दिन देवों, ऋषियों एवं पितरों को तर्पण करना चाहिए अर्थात् जल देकर उन्हें परितुष्ट करना चाहिए।…”

    उक्त उद्धरण से यह प्रमाणित होता है कि ‘पितृ-पक्ष’ में पितरों के ‘पूजन-तर्पण का विधान’ कितना प्राचीन है-‘वैदिक काल’ से इसकी परम्परा चली आ रही है।

    ‘पितृ-पक्ष’ के १५ दिनों की अवधि में माता और पिता दोनों पक्षों के दिवङ्गत पूर्वजों का स्मरण करते समय हमें यह भी जानना चाहिए कि पूजनीय पितरों के लिए भारतीय ऋषियों ने ‘पितृ लोक’ की भी अनूठी कल्पना की है। यह ‘पितृ लोक’ अन्य देव-लोकों-विष्णु-लोक, शिव-लोक, ब्रह्म-लोकादि से भी उच्च माना गया है। ‘पितृ लोक’ में पहुँचनेवाली आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता, जबकि अन्य लोकों में पहुँचनेवाली आत्माओं को पुण्य-भोग के बाद पुन: जन्म लेना पड़ता है।

    ‘पितरों’ की एक महती विशेषता और है। वह यह कि पितृ-देव व्यक्तियों के अपने निजी पूर्वज या सम्बन्धी ही होते है। अतः वे शीघ्र ही प्रसन्न होकर ‘श्राद्ध’ या ‘तर्पण’ करनेवाले व्यक्ति का सब प्रकार से कल्याण करते हैं, जबकि अन्य देवी-देवताओं-अवतारादि इतनी सरलता से प्रसन्न नहीं होते। उनके पूजा-पाठ में अधिक परिश्रम और अनेक व्यय-साध्य अनुष्ठानों के चक्कर में पड़ना पड़ता है। ऐसी | दशा में दयालु ऋषियों की इस अपूर्व देन-‘पितृ-पक्ष’ से हमें अधिकाधिक लाभ उठाना चाहिए। श्रद्धापूर्वक पितरों का पूजन-तर्पण कर सब प्रकार से अपना अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त करना चाहिए।


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    Author: Admin Editor MBC

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