Home 2023 जानिए क्या है दुर्गा सप्तशती का रहस्य, पूरे पाठ क़ो हिंदी में जाने

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जानिए क्या है दुर्गा सप्तशती का रहस्य, पूरे पाठ क़ो हिंदी में जाने

प्राचीन समय में हिरण्याक्ष वंश में दुर्गम नाम का एक दैत्य हुआ , जो रुरु का पुत्र था,उसने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके वेदों को माँग लिया जिससे ब्राह्मणों को वेद विस्मृत हो गये।
अतः स्नान, संध्या नित्यहोम श्राद्ध यज्ञ , जप आदि वैदिक क्रियाएँ नष्ट हो गयीं,यज्ञ भाग न पाने से देवता कमजोर हो गये और दुर्गम से भयभीत होकर पर्वत की कन्दराओं मे छिप गये ,दैत्य ने अमरावती पर अधिकार कर लिया, हवन न होने से पृथ्वी पर एक बूँद भी जल वृष्टि नहीं हुए जिससे कुएँ , बावली तालाब आदि सभी सूख गये, सौ वर्षों तक ऐसी अनावृष्टि होती रही, इससे समस्त प्रजाओं के चित्त में बड़ी दीनता आ गयी। उनके महान् दुःख को देखकर सब देवता महेश्वरी योगमाया की शरण में गये और प्रार्थना की —-

महामाये! अपनी सारी प्रजा की रक्षा करो, रक्षा करो। अपने क्रोध को रोको, अन्यथा सब लोग निश्चय ही नष्ट हो जायँगे। कृपासिन्धो! दीनबन्धो! जैसे शुम्भ नामक दैत्य, महाबली निशुम्भ, धूम्राक्ष, चण्ड, मुण्ड, महान् शक्तिशाली रक्तबीज,मधु कैटभ तथा महिषासुर का तुमने वध किया था, उसी प्रकार इस दुर्गमासुर का शीघ्र ही संहार करो,बालकों से पग-पग पर अपराध बनता ही रहता है। केवल माता के सिवा संसार में दूसरा कौन है, जो उस अपराध को सहन करता हो । देवताओं और ब्राह्मणों पर जब-जब दुःख आता है, तब- तब शीघ्र ही अवतार लेकर तुम सब लोगोंको सुखी बनाती हो।

देवताओं की यह व्याकुल प्रार्थना सुनकर कृपामयी देवी ने उस समय अपने अनन्त नेत्रों से युक्त रूप का दर्शन कराया। उनका मुखारविन्द प्रसन्नता से खिला हुआ था और वे अपने चारों हाथों में क्रमश: धनुष, बाण, कमल तथा नाना प्रकार के फल-मूल लिये हुए थीं। उस समय प्रजाजनों को कष्ट उठाते देख उनके सभी नेत्रों में करुणा के आँसू छलक आये। वे व्याकुल होकर लगातार नौ दिन और नौ रात रोती रहीं,उन्होंने अपने नेत्रों से अश्रु- जल की सहस्रों धाराएँ प्रवाहित कीं, उन धाराओं से सब लोग तृप्त हो गये और समस्त ओषधियाँ भी सिंच गयीं, सरिताओं और समुद्रों में अगाध जल भर गया, पृथ्वी पर साग और फल-मूल के अंकुर उत्पन्न होने लगे। देवी शुद्ध हदय वाले महात्मा पुरुषों को अपने हाथ में रखे हुए फल बाँटने लगीं, उन्होंने गौओं के लिये सुन्दर घास और दूसरे प्राणियों के लिये यथा योग्य भोजन प्रस्तुत किये—–

“शत शत नेत्रों से बरसाया नौ दिनों तक अविरल अति जल।
भूखे जीवों के हित दिए अमित तृण अन्न शाक शुचि फल।।”
देवता, ब्राह्मण और मनुष्यों सहित सम्पूर्ण प्राणी संतुष्ट हो गये।

तब देवी ने देवताओं से पूछा-
‘तुम्हारा और कौन-सा कार्य सिद्ध करू?’
उस समय सब देवता एकत्र होकर बोले-
‘देवि! आपने सब लोगों को संतुष्ट कर दिया, अब कृपा करके दुर्गमासुर के द्वारा अपहत हुए वेद लाकर हमें दीजिये।’
तब देवी ने ‘तथास्तु’ कहकर कहा-
‘देवताओ! अपने घर को जाओ, जाओ, मैं शीघ्र ही सम्पूर्ण वेद लाकर तुम्हें अर्पित करूँगी।’
यह सुनकर सब देवता बड़े प्रसन्न हुए। वे प्रफुल्ल नीलकमल के समान नेत्रों वाली जगद्योनि जगदम्बा को भली-भाँति प्रणाम करके अपने-अपने धाम को चले गये।

फिर तो स्वर्ग, अन्तरिक्ष और पृथ्वी पर बड़ा भारी कोलाहल मच गया, उसे सुनकर उस भयानक दैत्य ने चारों ओर से देवपुरी को घेर लिया, तब शिवा देवताओं की रक्षा के लिये चारों ओर से तेजोमय मण्डल का निर्माण करके स्वयं उस घेरे से बाहर आ गयीं, फिर तो देवी और दैत्य दोनों में घोर युद्ध आरम्भ हो गया। समरांगण में दोनों ओर से कवच को छिन्न-भिन्न कर देने वाले तीखे बाणों की वर्षा होने लगी।

इसी बीच देवी के शरीर से सुन्दर रूप वाली काली, तारा, छिन्नमस्ता, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, भैरवी, बगला, धूम्रा, श्रीमती त्रिपुरसुन्दरी और मातंगी-ये दस महाविद्याएँ अस्त्र-शस्त्र लिये निकलीं, तत्पश्चात् दिव्य मूर्तिवाली असंख्य मातृकाएँ प्रकट हुईं। उन सबने अपने मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट धारण कर रखा था और वे सब-की-सब विद्युत्के समान दीप्तिमती दिखायी देती थीं। इसके बाद उन मातृगणों के साथ दैत्यों का भयंकर युद्ध आरम्भ हुआ। उन सबने मिलकर उस रौरव अथवा दुर्गम दैत्य की सौ अक्षौहिणी सेनाएँ नष्ट कर दीं, इसके बाद देवी ने त्रिशूल की धार से उस दुर्गम दैत्य को मार डाला, वह दैत्य जड़ से खोदे गये वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा।

इस प्रकार ईश्वरी ने उस समय दुर्गमासुर नामक दैत्य को मारकर चारों वेद वापस ले देवताओं को दे दिये।

तब देवता बोले-
अम्बिके! आपने हम लोगों के लिये असंख्य नेत्रों से युक्त रूप धारण कर लिया था, इसलिये मुनिजन आपको ‘शताक्षी’ कहेंगे।

सप्तशती में भी आदि शक्ति जगदम्बा द्वारा कहा गया है —

भूयश्च शतवार्षिक्यामनावृष्ट्यामनम्भसि ।
मुनिभिः संस्मृता भूमौ सम्भविष्याम्ययोनिजा॥
ततः शतेन नेत्राणां निरीक्षिष्याम्यहं मुनीन् ।
कीर्तयिष्यन्ति मनुजाः शताक्षीमिति मां ततः।।
सौ वर्षों तक बारिश न होने से पृथ्वी पर पानी के अभाव में मुनियों के स्तुति करने पर अयोनिजा रूप में प्रकट होउंगी।
तब मैं सौ नेत्रों से मुनियों को देखूंगी,मनुष्य तब शताक्षी के नाम से मेरा कीर्तन करेंगे।

अपने शरीर से उत्पन्न हुए शाकों द्वारा आपने समस्त लोकों का भरण-पोषण किया है, इसलिये ‘शाकम्भरी’ के नाम से आपकी ख्याति होगी।
सप्तशती में भी आदि शक्ति जगदम्बा द्वारा कहा गया है —

ततोऽहमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवैः।
भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः।।
शाकम्भरीति विख्यातिं तदा यास्याम्यहं भुवि।
हे देवताओं तब मैं बारिश न होने तक अपनी देह पर उत्पन्न प्राण दायक शाकों से सारे संसार का भरण पोषण करुँगी, तब मैं पृथ्वी पर शाकम्भरी नाम से ख्याति प्राप्त करुँगी।

शिवे ! आपने दुर्गम नामक महादैत्य का वध किया है, इसलिये लोग आप कल्याणमयी भगवती को ‘दुर्गा’ कहेंगे।

सप्तशती में भी आदि शक्ति जगदम्बा द्वारा कहा गया है —

तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यं महासुरम्।।
दुर्गादेवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति।।
वहीं दुर्गम कहे जाने वाले महासुर का वध करुँगी,तब मेरा नाम दुर्गा देवी इस प्रकार प्रसिद्ध होगा।

दुर्गा शब्द का अर्थ है—

दैत्यनाशार्थवचनो दकार: परिकीर्तित:।
उकारो विघ्ननाशस्य वाचको वेदसम्मत:।।
रेफो रोगघ्नवचनो गच्छ पापघ्नवाचक:।
भयशत्रुघ्नवचनश्चाकार: परिकीर्तित:।।
इस श्लोक के अनुसार, दुर्गा शब्द में द अक्षर दैत्यनाशक, उ अक्षर विघ्ननाशक, रेफ रोगनाशक, ग कार पापनाशक तथा आ कार शत्रुनाशक है, इसीलिए मां दुर्गा को दुर्गतिनाशिनी भी कहते हैं।

योगनिद्रे ! आपको नमस्कार है। महाबले ! आपको नमस्कार है। ज्ञानदायिनि ! आपको नमस्कार है। आप जगन्माता को बारंबार नमस्कार है।

तत्त्वमसि आदि महा वाक्यों द्वारा जिन परमेश्वरी का ज्ञान होता है, उन अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों का संचालन करने वाली भगवती दुर्गा को बारंबार नमस्कार है।

मातः ! आप तक मन, वाणी और शरीर की पहुँच होनी कठिन है। सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि-ये तीनों आपके नेत्र हैं। हम आपके प्रभाव को नहीं जानते, इसलिये आपकी स्तुति करने में असमर्थ हैं।

सुरेश्वरी माता शताक्षी को छोड़कर दूसरा कौन है, जो हम-जैसे अमरों पर दृष्टिपात करके ऐसी दया करे।
देवि! आपको सदा ऐसा ही यत्न करना चाहिये, जिससे तीनों लोक निरन्तर विघ्न-बाधाओं से तिरस्कृत न हों, आप हमारे शत्रुओं का नाश करती रहें।

देवी ने कहा-
देवताओ! जैसे बछड़ों को देखकर गौएँ व्यग्र हो उतावली के साथ उनकी ओर दौड़ती हैं, उसी तरह तुम सबको देखकर व्याकुल हो दौड़ी आती हूँ। तुम्हें न देखने से मेरा एक क्षण भी युग के समान बीतता है। मैं तुम्हें अपने बच्चों के समान समझती हूँ और तुम्हारे लिये अपने प्राण भी दे सकती हूँ। तुम लोग मेरे प्रति भक्ति भाव से सुशोभित हो, अतः तुम्हें कोई भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये।

मैं तुम्हारी सारी आपत्तियों का निवारण करने के लिये सदैव उद्यत हूँ, जैसे पूर्वकाल में तुम्हारी रक्षा के लिये मैंने दैत्यों को मारा है, उसी प्रकार आगे भी असुरों का संहार करूँगी- इसमें तुम्हें संशय नहीं करना चाहिये, यह मैं सत्य-सत्य कहती हूँ।
जो देवी शताक्षी कही गयी हैं, वे ही शाकम्भरी मानी गयी हैं तथा उन्हीं को दुर्गा कहा गया है, तीनों नामो द्वारा एक ही शक्ति का प्रतिपादन होता है।

इस पृथ्वी पर महेश्वरी शताक्षी के समान दूसरा कोई दयालु देवता नहीं है; क्योंकि वे देवी समस्त प्रजाओं को संतप्त देख नौ दिनों तक रोती रह गयी थीं।




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Author: Admin Editor MBC

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