भैरव को प्रसाद में शराब का चढ़ावा, षड्यंत्र है या परंपरा ? जानिए क्या है धर्म ग्रंथ में
जैसा कि आप सभी जानते हैं कि उज्जैन में बहुत सारे प्रसिद्ध मंदिर हैं। लेकिन उनमें से कुछ ऐसे मंदिर भी हैं जो सबसे अलग हैं। जिनमें भगवान भैरोनाथ जी का मंदिर और दूसरा है देवी महामाया महालाया का मंदिर। और ये मंदिर यहां के उन हजारों मंदिरों में सबसे अलग इसलिए पहचाने जाते हैं क्योंकि इन मंदिरों में स्थापित देवी-देवताओं को शराब का भोग लगाया जाता है।
इनमें से भगवान भैरोनाथ जी को द्वारा शराब पिलाये जाने से संबंधित इंटरनेट पर कई प्रकार के लेख और वीडियो देखने को और पढ़ने को मिल जाते हैं। लेकिन, सोचने वाली बात ये है कि सिर्फ इन्हीं एक या दो मंदिरों में देवी-देवताओं को शराब पिलाये जाने के उदाहरण हमारे सामने हो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। बल्कि देश में ऐसे ही और भी कई मंदिर हैं जिनमें देवी-देवताओं को शराब पिलाई जाती है। जिनमें शिव की नगरी काशी में काल भैरव और बटुक भैरव मंदिर का भी नाम सुनार है।
जब मैंने इस विषय पर और भी अधिक जानकारी लेनी चाही तो मुझे ऐसे और भी कई मंदिरों के बारे में पता चला, जहां देवी-देवताओं को शराब पिलाई जाती है या प्रसाद के नाम पर चढ़ाई जाती है। जैसे कि हरिद्वार में मां दक्षिण काली का मंदिर, राजस्थान के नागौर जिले में माता भुवाल काली का मंदिर, इंदौर का महामाया देवी मंदिर, और उज्जैन के नजदीक में रतलाम जिला मुख्यालय से करीब 30 किलोमीटर दूर सातरुंडा गांव में कवलका माता मंदिर में भी माता की मूर्ति के साथ-साथ यहां स्थापित काल भैरव और काली मां की मूर्तियों को भी शराब पिलाये जाने की परंपरा बन चुकी है।
अब यहां सवाल ये उठता है कि अगर हिन्दू धर्म के देवी-देवताओं को प्रसाद के नाम पर या भोग के नाम पर पिलाई जाने वाली शराब कुछ गिने-चुने मंदिरों या देवी-देवताओं के लिए ही है तो फिर ऐसा क्यों है? ये प्रथा तो सभी मंदिरों में होनी चाहिए ?
षड्यंत्र है या परंपरा ?
आखिर ऐसा कौन-सा षड्यंत्र है जिसके चलते इस प्रकार की कुप्रथा को सनातन धर्म के ऊपर जानबुझ कर थोपा गया? या फिर इस कुप्रथा की आड़ में हिन्दू धर्म को बदनाम करने का षड्यंत्र रचा गया ? तो इस बात की जांच-पड़ताल के लिए काशी सहित दूसरे शहरों के कई विद्वानों से और धर्म ग्रंथो सहित इंटरनेट पर काफी खोजबीन की तब भी ऐसा कुछ पता नहीं चल पाया कि आखिर ये कुप्रथा कब शुरू हुई ? और इस बात का प्रमाण किस धर्म ग्रंथ में अंकित है ?
लेकिन, यहां इसी से मिलते-जुलते दूसरे षड्यंत्र के बारे में कुछ जानकारियां जरूर मिली। जिनमें बताया गया कि खुद शिरडी के साईं बाबा के द्वारा अपने अनुयायियों को जबरन या यूं कहें कि बहला-फुसला कर, प्रसाद के बहाने उसमें मांस मिलाकर यानी मांस वाले चावल बनाकर खिलाने का जिक्र मिलता है। लेकिन ये ज्यादा पुरानी बात नहीं है। जबकि मंदिरों में प्रसाद के नाम पर शराब पिलाये जाने का चलन इससे भी पहले ही शुरू हो चुका था।
क्योंकि, सनातन धर्म और संस्कृति में तो किसी भी मंदिर में स्थापित देवी या देवता की मूर्ति को शराब पिलाये जाने के ऐसे कोई भी पौराणिक साक्ष्य या प्रमाण ही नहीं है। इसलिए इन मंदिरों में प्रसाद के तौर पर देवी-देवताओं को शराब का चढ़ावा कब, क्यों और किसके द्वारा शुरू करवाया गया होगा ये कहना थोड़ा मुश्किल है।
लेकिन, सनातन धर्म या संस्कृति में होने वाली हर प्रकार की पूजा-पाठ में या फिर मंदिरों में जाने से पहले आज भी स्नान कर के या फिर हाथ-पैर धो कर, शुद्ध होने के बाद ही अंदर जाया जाता है। तो फिर ऐसे धर्म में शराब को न सिर्फ मंदिर में खुले आम जाने देना बल्कि उसमें स्थापित देवी-देवताओं को प्रसाद के तौर पर भोग लगाने की परंपरा का प्रचलन इतने आसानी से तो शुरू नहीं किया जा सकता।
कई विद्ववान ये मानते हैं कि देवी-देवताओं को इस प्रकार से मदिरापान का भोग लगाना या प्रसाद के तौर पर बांटना एक खास और सेक्युलर बिरादरी के द्वारा ही शुरू किया गया हो सकता है। क्योंकि वे लोग ही हमारी आस्था पर चोट करने के नये-नये तरीके खोजते आ रहे हैं और ये भी उन्हीं तरीकों में से एक हो सकता है। जबकि सनातन परंपरा में तो इस प्रकार से न तो कोई उल्लेख मिलता है और ना ही इस प्रकार की किसी परंपरा का प्रचलन रहा है।
इस संबंध में जानकारियां जुटाने के लिए अपने स्तर पर रिसर्च की तो पता चला कि लोग जिसको ‘मदिरापान’ कह कर मंदिरों में देवी-देवताओं पर शराब या मदिरा को चढ़ाते हैं वो असल में मदिरा नहीं बल्कि ‘सोमरस’ होना चाहिए। लेकिन, लोगों को सोचने का, सूनने का या समझने का इतना भी वक्त नहीं है कि आखिर मदिरा और सोमरस में क्या फर्क है। और तो और कई लोग तो शराब को भी सोमरस ही समझते हैं। और उसी का फायदा उठा कर सेक्युलनवादी लोगों ने इसे सोमरस कहना शुरू कर दिया और हमारे देवी-देवताओं पर सोमरस के बहाने शराब को चढ़ाने की प्रथा शुरू कर दी।
शंकराचार्य और धर्मगुरु इसे मानते हैं अधर्म
सनातन धर्म और संस्कृति के लिए ये एक बहुत ही घर्णित और धर्म का नाश करने वाली कुप्रथा है । उस विषय पर सभी शंकराचार्य, बड़े ओहदे पर आसीन ज्ञानी, जानकार व्यक्ति कुछ सनातन धर्म रक्षक इसे गलत और धर्म विरोधी मानते है। लेकिन अज्ञानी धर्म विरोधी और शराब के लती अपने अपने फायदे के लिए तमाम ढंग के कुतर्क को देते हैं। पूरे मामले में मंदिर के मालिक और महंत भी कम दोषी नहीं है यह मंदिर रूपी अपनी दुकान चलाने के लिए लगातार समाज में भ्रम की स्थिति बनाकर रखते हैं जिसका फायदा धर्म विरोधी उठा रहे हैं।
आगे इस बारे में और जानकारियां इकट्ठा की तो मुझे पता चला कि शराब तो सिर्फ और सिर्फ नशे के लिए ही होती है। इसलिए हम सभी जानते हैं कि सनातन धर्म के किसी भी पूजा-पाठ या धार्मिक स्थानों पर ये एकदम प्रतिबंधित होती है। लेकिन यहां जिस ‘सोमरस’ की बात आती है वो एक प्रकार से प्राकृतिक रूप से तैयार किया जाने वाला रस होता है। और इस ‘सोमरस’ का जिक्र हमारे हमारे वेदों और पुराणों में भी मिलता है।
फर्क है सोमरस, मदिरा और सुरापान में
दरअसल, हमारे धार्मिक ग्रंथों में सोमरस, मदिरा और सुरापान तीनों में बहुत फर्क बताया गया है। ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है कि सुरापान करने या नशीले पदार्थों को खाने या पीने वाले अक्सर मार-पिटाई, युद्ध और उत्पात मचाने का ही काम करते हैं।
‘सोमरस’ प्राकृतिक रूप से तैयार पेय पदार्थ हुआ करता था या होता है जिसको दूध में मिला कर देवी-देवताओं को अर्पित किया जाता था। इसी ‘सोमरस’ का वर्णन ऋग्वेद में भी मिलता है। वेदों और पुराणों में इसको ‘अमृत’ या अमृत के समान माना गया है। या फिर यूं कहें कि अमृत का ही दूसरा नाम ‘सोमरस’ है। इसलिए इसे देवी-देवताओं को अर्पित किया जाता था। लेकिन, आजकल न सिर्फ ‘सोमरस’ के अर्थ को अनर्थ में बदल दिया है बल्कि इसके इस्तमाल को भी पाप का भागीदार बनाकर हम सब के जीवन से जोड़ दिया गया है।
ऋग्वेद में जिक्र
ऋग्वेद में जिक्र मिलता है कि, ‘सोम’ नाम का यह पौधा बिना पत्तियों का गहरे बादामी रंग में पाया जाता था। ये पौधा उड़ीसा के महेन्द्र गिरी, राजस्थान के अर्बुद, विंध्याचल और हिमाचल की ऊंची पहाड़ियों वाले इलाकों में पाया जाता था। ‘सोम’ के इसी के रस को दूध में मिलाकर देवी-देवताओं को अर्पित किया जाता था। जानकार मानते हैं कि वर्तमान में इस पौधे की पहचान करना संभव नहीं हो पाया है। लेकिन, कुछ विद्वान मानते हैं कि अफगानिस्तान की पहाड़ियों पर यह यह पौधा अब भी पाया जा सकता है।
भले ही इस महापाप वाली षड्यंत्रकारी परंपरा को शुरू करने वाले वे कुछ लोग, मात्र एक या दो बार पाप करने के बाद किनारे हो गये होंगे। लेकिन, अब उससे भी बड़ी बात तो ये है कि उस घिनौने पाप वाले महा-षड्यंत्र को हम और हमारा सनातन धर्म हर रोज और हर पल न सिर्फ झेल रहा है बल्कि उसका भागीदार भी बनता जा रहा है और भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी इसको ‘पापी परंपरा’ के तौर पर तैयार करते जा रहे हैं।
लेख का बातचीत पर आधारित – पश्चिम (शारदा)पीठ के शंकराचार्य सदानंद सरस्वती, उत्तर पीठ (ज्योतिष)के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती, पूर्व पीठ (गोवर्धन)के शंकराचार्य निश्चलानंद सरस्वती, दक्षिण पीठ(श्रृंगेरी) के शंकराचार्य भारती तीर्थ जी, स्वामी जितेंद्रनंद सरस्वती जी, सुमेरु पीठ शंकराचार्य नरेंद्नंद सरस्वती जी, कथावाचक प्रदीप मिश्रा जी, श्री बागेश्वर महाराज जी, डॉ चंद्रमौली उपाध्याय, डॉ सुभाष पांडे, डॉ विनय पाण्डेय
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