सबसे अमीर और रहस्यमयी मंदिर है श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर, यह है पूरी जानकारी
आठवीं सदी में एक महान विष्णु भक्त थे जो सदैव श्रीहरि की साधना में लीन रहते थे। उनकी बस एक ही इच्छा थी कि किसी भी प्रकार उन्हें श्रीहरि के महाविष्णु स्वरुप के दर्शन हो जाएँ। किन्तु हर दिन एक बालक उनकी तपस्या को भंग करने का प्रयास करता था। एक दिन जब वो बालक उन्हें परेशान करने आया तो उन्होंने उसे पकड़ लिया।
किन्तु इससे पहले वो अपनी ऑंखें खोलते, उस बालक ने कहा कि वो श्रीहरि का ही एक रूप है और यदि वे महाविष्णु के दर्शन करना चाहते हैं तो अनंत काडू वन में आ जाएँ। उन्होंने पहले कभी उस वन का नाम नहीं सुना था किन्तु महाविष्णु स्वरुप के दर्शन करने की लालसा में वे उस बालक के आभूषणों के स्वर के पीछे-पीछे चल पड़े किन्तु वे मार्ग भटक गए।
अनंत काडू वन…
अब वे अनंत काडू वन की खोज में इधर उधर भटकने लगे। तभी उन्हें एक महिला दिखी जो अपने छोटे से बच्चे को डांटते हुए कह रही थी कि यदि उसने फिर से शैतानी की तो वो उसे अनंत काडु जंगल में छोड़ आएगी। वे तत्काल उस महिला के पास पहुंचे और उनसे अनंत काडु वन के विषय में पूछा। उस महिला के द्वारा बताये गए मार्ग पर चलते हुए वे अंततः अनंत काडु वन पहुंचे जहाँ उन्होंने एक विशाल महुआ के पेड़ के नीचे खड़े उस बालक को देखा।
श्री पद्मनाभ स्वामी…
तभी वो बालक अदृश्य हो गया और वहां खड़े चार महुआ के वृक्ष में से सबसे विशाल वृक्ष गिर पड़ा और तब उन्हें वहां शेषनाग पर लेटे हुए महाविष्णु के दर्शन हुए। कहा जाता है कि वो रूप इतना विशाल था जिसका एक छोर तिरुवल्लम तो दूसरा छोर तिरुअप्पापुर तक फैला हुआ था। अर्थात श्रीहरि के उस रूप का विस्तार लगभग २५० मील तक फैला हुआ था।
वो रूप इतना विशाल था वे उसे एक बार में नहीं देख सके और उनके सामने खड़े तीन महुआ के वृक्षों के कारण उन्होंने तीन भागों में उस स्वरुप का दर्शन किया। उन्होंने श्रीहरि से प्रार्थना की कि वे अपना आकार सीमित करें ताकि वे उनकी पूजा और परिक्रमा कर सकें। उनके अनुरोध पर महाविष्णु ने ऐसा ही किया। आज भी उन विष्णु भक्त की समाधि इसी मंदिर के निकट है। वे महान विष्णु भक्त थे “श्री विल्वमंगलम स्वामियार” और यहीं से श्री पद्मनाभ स्वामी के वर्तमान स्वरुप की कथा का आरम्भ होता है।
जब उस समय के त्रावणकोर सम्राट को इसकी सूचना मिलती है तो वे उसी महुआ के वृक्ष से भगवान महाविष्णु की प्रतिमा का निर्माण करवाते हैं और उसे वहीँ एक मंदिर में स्थापित करते हैं। वर्तमान का श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर उसी स्थान पर स्थित है। आगे चल कर अठारवी सदी में सन १७३३ में त्रावणकोर के महाराज मार्तण्ड वर्मा ने वर्तमान मंदिर की स्थापना की। उन्होंने नेपाल के गण्डकी नदी से १२००८ शालिग्राम मंगवा कर उन्हें इस विशाल प्रतिमा पर जड़वाया था।
तिरुअनंतपुरम…
ये मंदिर वैष्णव संप्रदाय, केरल और दक्षिण भारत की संस्कृति से कितना जुड़ा हुआ हुआ है इसका पता केरल की राजधानी “तिरुअनंतपुरम”, इस नाम से पता चल जाता है। इसका अर्थ है भगवान अनंत (शेषनाग) की नगरी।” इस मंदिर में श्रीहरि अपने महाविष्णु स्वरुप में शेषनाग पर लेटे हुए हैं और उनकी अर्धांगिनी के रूप में माता महालक्ष्मी यहाँ स्थित है।
वैसे तो कई पुराणों में इस मंदिर का वर्णन मिलता है किन्तु एक कथा हमें महाभारत में मिलती है। ऐसी मान्यता है कि महाभारत युद्ध से पहले जब श्री बलराम तीर्थ यात्रा पर निकले थे तब उन्होंने इस मंदिर के भी दर्शन किये थे।
इस मंदिर में प्रवेश करने के नियम भी बहुत कड़े हैं। पहली बात तो ये कि इस मंदिर में केवल हिन्दू ही प्रवेश कर सकते हैं। दूसरी ये कि इस मंदिर में प्रवेश करने के लिए आपको बिना सिले हुए कपडे पहनना अनिवार्य है। पुरुष धोती और महिलाएं साडी पहन कर ही इस मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं।
वास्तुकला…
ये मंदिर अपने आप में अद्भुत है। इसमें आपको तमिल और केरल की वास्तुकला का मिश्रण मिलेगा। इसके गर्भगृह में १८ फ़ीट की महाविष्णु की प्रतिमा है जो शेषनाग पर लेटे हुए हैं। उनकी नाभि से एक कमल निकला हुआ है जिसपर भगवान ब्रह्मा विराजमान हैं और इसीलिए इनका नाम “पद्मनाभ” पड़ा है। इस प्रतिमा में आपको ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर तीनों के दर्शन होते हैं।
इस प्रतिमा को तीन द्वारों से ठीक उसी प्रकार घेरा गया है जिस श्री विल्वमंगलम स्वामियार ने तीन महुए के वृक्षों के बीच से महाविष्णु के दर्शन किये थे। पहले द्वार से हमें भगवान महाविष्णु का मुख, शेषनाग का फन और एक शिवलिंग दिखाई देता है जिसे महाविष्णु अपने हाथों से स्पर्श कर रहे हैं। दूसरे द्वार से भगवान विष्णु के साथ महाविष्णु की नाभि से निकले कमल के पुष्प पर भगवान ब्रह्मा दिखाई देते हैं। और तीसरे द्वार से हमें महाविष्णु के चरण कमलों के दर्शन होते हैं। ऐसी उत्तम वास्तुकला कहीं और मिलना कठिन है।
इस मंदिर को और भी अद्भुत बनाता है इसका विशाल गोपुरम। ये भूमि से करीब १०० फ़ीट ऊपर बनाया गया है जिसमें सैकड़ों देवी देवताओं की प्रतिमाएं उकेरी गयी है। इस गोपुरम में कुल सात मंजिल हैं जिनके मध्य में ७ झरोखे बनाये गए हैं। इन झरोखों को इस प्रकार बनाया गया है कि वर्ष में दो बार जब दिन और रात बराबर होते हैं, तब भगवान सूर्यनारायण ५-५ मिनट के अंतराल पर इन सभी झरोखों से होते हुए अस्त होते हैं। इससे हम केवल अनुमान लगा सकते हैं कि उस समय की वास्तुकला कितनी उन्नत रही होगी।
अरट्टू पर्व…
आज पद्मनाभ स्वामी के सम्मान में वर्ष में दो बार यहाँ १० दिनों का अरट्टू पर्व मनाया जाता है। पहली बार इसे मार्च से अप्रैल में मनाते हैं जिसे पेनकुनि अरट्टू कहा जाता है। दूसरी बार ये पर्व अक्टूबर से नवम्बर महीने में मनाया जाता है जिसे अल्पाशी अरट्टू कहते हैं। इन दोनों पर्वों में श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर से हाथियों पर भगवान पद्मनाभ स्वामी, भगवान नृसिंह एवं भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमाओं की एक यात्रा निकाली जाती है जिन्हे वहां से लगभग ४ मील दूर अरब सागर में स्नान कराया जाता है।
त्रावणकोर का शाही परिवार इस यात्रा का प्रतिनिधित्व करता है। त्रावणकोर के महाराज नंगे पांव श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर से शंगुमुखम बीच तक जाते हैं जहाँ इन तीनों प्रतिमाओं को स्नान कराया जाता है। स्नान के बाद अग्नि के प्रकाश में इन तीनों प्रतिमाओं को वापस मंदिर लाया जाता है। इस यात्रा के महत्त्व का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि इस यात्रा के दौरान तिरुअनंतपुरम अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे की सेवाओं तक को बंद कर दिया जाता है।
इस मंदिर का स्वामित्व शताब्दियों से त्रावणकोर राजपरिवार के पास रहा है। प्राचीन काल से ही त्रावणकोर राज्य में मातृ सत्ता का चलन रहा है। अर्थात इस साम्राज्य की रानी राजा की पत्नी नहीं बल्कि बहन मानी जाती है और राजगद्दी भी राजा के बेटे को नहीं बल्कि राजा की बहन के बेटे को मिलती है। १८वीं शताब्दी में जब राजा मार्तण्ड वर्मा ने इस मंदिर को बनवाया तो इसके प्रति उनकी श्रद्धा इतनी बढ़ी कि उन्होंने अपना सारा राज्य, सारी संपत्ति प्रभु पद्मनाभ स्वामी को अर्पित कर दी और प्रण लिया कि अब वे आजीवन इस मंदिर के सेवक के रूप में ही राज्य करेंगे।
राजा मार्तण्ड वर्मा के बाद जितने भी राजा आये, उन्होंने भी इसी परंपरा का पालन किया। आज भी इस मंदिर का प्रबंधन त्रावणकोर के शाही परिवार के पास है। यहाँ तक कि संविधान में भी त्रावणकोर कोच्ची धार्मिक प्रावधान का उल्लेख है जिसमें मंदिर का प्रबंधन त्रावणकोर के शाही परिवार के पास ही रखा गया है। पीढ़ियों से चले आ रहे इस परिवार के सदस्य आज भी पद्मनाभ स्वामी के महान भक्त माने जाते हैं।
स्वामित्व पर विवाद…
१९७१ में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने “प्रिवी पर्स” अर्थात शाही भत्ते को समाप्त कर दिया जिससे इस परिवार के अधिकार कुछ सीमित हो गए। सन २०११ में केरल उच्च न्यायलय ने इस परिवार से पद्मनाभ स्वामी मंदिर का स्वामित्व छीन लिया पर परिवार द्वारा सर्वोच्च न्यायलय में जाने के बाद उसी वर्ष उच्चतम न्यायलय ने केरल उच्च न्यायलय के फैसले पर रोक लगा दी। बाद में २०२० में उच्चतम न्यायालय ने मंदिर का स्वामित्व पुनः शाही परिवार को लौटा दिया।
तहखानों को खोला जाना…
वर्ष २००९ में कुछ ऐसा हुआ जिसमें इस मंदिर को चर्चा में ला दिया। तमिलनाडु में जन्में टी पी सुंदरराजन नाम के एक पूर्व IPS अधिकारी जो एक वकील भी थे, उन्होंने केरल उच्च न्यायलय में एक जन हित याचिका दायर की जिसमें इन्होने कहा कि सरकार को श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर के तहखानों को खोलना चाहिए और वहां के खजाने को अपने संरक्षण में ले लेना चाहिए।
फिर क्या था, सरकार को एक बहाना मिला और ३१ जनवरी २०११ को न्यायलय ने केरल सरकार को इस मंदिर का स्वामित्व अपने हाथ में लेने और मंदिर के तहखाने खोलने का आदेश दिया। यही वो समय था जब उच्च न्यायलय ने त्रावणकोर राजपरिवार को इस मंदिर के प्रबंधन से बेदखल कर दिया था। उस समय इस आदेश के विरुद्ध केरल की जनता, इस मंदिर के पुजारी और राजपरिवार के सदस्यों ने बड़ा विरोध किया पर सरकार और न्यायलय ने किसी की एक नहीं सुनी।
इसके बाद सरकार ने ७ सदस्यों की एक टीम बनाई जिनके निरिक्षण में इस मंदिर के तहखानों को खोला जाना था। इस मंदिर के अंदर उन्हें ६ तहखाने मिले जिसे सरकार ने वॉल्ट A, वॉल्ट B, वॉल्ट C, वॉल्ट D, वॉल्ट E और वॉल्ट F का नाम दिया। २७ जून २०११ को पहला तहखाना वॉल्ट A खोला गया और उसके अंदर जो मिला उसे देख कर सबकी आँखें चौंधिया गयी। वहां उन्हें अरबों का सोना और कई प्रकार के रत्न बिखरे पड़े मिले। इससे रातों रात ये मंदिर पूरे विश्व के आकर्षण का विषय बन गया।
जिस दिन पहला तहखाना खोला गया उससे ठीक २० दिनों के बाद १७ जुलाई २०११ को टी पी सुंदरराजन, जिन्होंने इस पूरे विवाद को जन्म दिया था, उनकी रहस्य्मय तरीके से मृत्यु हो गयी। कई लोगों ने इसे ईश्वरीय प्रकोप बताया और सरकार से अनुरोध किया कि अन्य तहखानों के दरवाजों को ना खोला जाये। किन्तु सरकार ने किसी की नहीं सुनी और एक एक कर वॉल्ट B को छोड़ कर सभी तहखाने खोले गए।
उन पांच तहखानों से इतनी संपत्ति प्राप्त हुई जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार अभी तक इन ५ तहखानों से २०००००००००००० (दो लाख करोड़) से भी अधिक मूल्य की संपत्ति प्राप्त हुई है। हालाँकि ये आंकड़ा केवल स्वर्ण के मूल्य का है। यदि उन स्वर्ण की नक्काशियों और प्राचीनता को ध्यान रखा जाये तो अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इसका मूल्य १०० गुणा से भी अधिक बढ़ जायेगा। कहा जाता है कि उन असंख्य सोने के सिक्कों में से प्रत्येक का मूल्य आज लगभग ३ करोड़ है। अब आप इसकी वास्तविक कीमत का केवल अनुमान ही लगा सकते हैं।
पांच तहखानों से अकूत संपत्ति..
एक चार फुट लम्बी और ३ फुट चौड़ी महाविष्णु की ठोस सोने से बनी मूर्ति जो असंख्य बेशकीमती रत्नों से जड़ी हुई है। कई लोगों का ये मानना है कि यदि इसकी प्राचीनता को ध्यान में रखा जाये तो इस अकेली प्रतिमा की कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लगभग १० बिलियन डॉलर, यानि लगभग एक लाख करोड़ रूपये होगी।
श्री पद्मनाभ स्वामी की प्रतिमा के बराबर, अर्थात १८ फ़ीट की सोने की एक जंजीर जिसका कुल वजन ५०० किलोग्राम से भी अधिक है।
१८ फ़ीट की प्रतिमा के बैठने के लिए ठोस सोने का बना २८ फुट का एक सिंहासन जो असंख्य रत्नों से जड़ा हुआ है।
भगवान को पहनाने के लिए १६ भागों में बटा हुआ सोने का एक वस्त्र जिसका वजन ३० किलोग्राम से भी अधिक है।
ठोस सोने का एक गुच्छा जिसका वजन ५०० किलोग्राम से भी अधिक है।
सोने का एक पर्दा जिसका वजन ३६ किलोग्राम से अधिक है।
१२०० से भी अधिक बड़े सोने के सिक्के जिनमे से प्रत्येक का वजन १०-१० किलोग्राम से भी अधिक है। कुल १२००० किलोग्राम से भी अधिक का ठोस सोना।
ठोस सोने से बने हुए सैकड़ों नारियल के खोल जो रत्नों से जड़े हुए हैं।
इसके अतिरिक्त असंख्य सोने के सिक्के, आभूषण और ऐसी चीजें जिसके बारे में सोचना भी असंभव है।
सबसे रहस्यमयी दरवाजा ..
सबसे रहस्य्मय दरवाजे, अर्थात वॉल्ट B पर। पांचों तहखाने खोलने के पश्चात जब टीम अंतिम तहखाने यानि कि वॉल्ट B के पास पहुंची तो पाया कि इनमें तीन द्वार थे। पहला द्वार लोहे का था जिसे बहुत श्रम कर खोला गया। दूसरा द्वार लकड़ी का था और उसे भी खोल लिया गया। किन्तु जब दूसरा द्वार खोला गया तो पाया गया कि इसके पीछे लोहे का एक और दरवाजा था जिसमें किसी प्रकार का ताला नहीं लगा था। इस द्वार पर दो नागों की प्रतिमाएं बनी हुई थी।
उन्होंने इस द्वार को खोलने का हर प्रयास किया किन्तु उसे खोल नहीं पाए। बाद में त्रावणकोर राजपरिवार ने उच्चतम न्यायलय में अपील की कि इस द्वार को इसी भी स्थिति में ना खोला गए। इस पारलौकिक घटना को देखते हुए कि इस द्वार पर बिना किसी ताले के होते हुए भी उसे खोलने के सारे प्रयास व्यर्थ गए हैं, २०२० में सर्वोच्च न्यायलय ने अंततः इस द्वार को खोलने पर रोक लगा दी।
प्रचलित मान्यतायें…
इस रहस्यमयी द्वार के बारे में भी कई मान्यताएं और कथाएं प्रचलित हैं। हालाँकि इनमें कितनी सच्चाई है इसके विषय में निश्चित रूप से कोई नहीं बता सकता।
ऐसी मान्यता है कि इस द्वार को अष्टनाग मन्त्र से सिद्ध कर बंद किया गया है और उसे केवल उसी मन्त्र द्वारा खोला जा सकता है।
कहा जाता है कि आज के युग में शायद ही कोई हो जिसे अष्टनाग मन्त्र के विषय में पता हो। ऐसा भी माना जाता है कि इसे खोलते समय यदि मंत्रोच्चारण में जरा भी गलती हुई तो खोलने वाले की मृत्यु तय है।
ऐसी मान्यता है कि इस द्वार के पीछे असंख्य नाग हैं जो वहां पड़े खजाने की रक्षा कर रहे हैं।
माना जाता है कि इस द्वार के पीछे इतना धन है जो हमारी सोंच से भी परे है। शायद पूरी दुनिया की कुल संपत्ति से भी अधिक।
स्थानीय लोगों का मानना है कि यदि ये द्वार खुल गया तो प्रलय आ जाएगा और सृष्टि का अंत निश्चित है।
ऐसी भी मान्यता है कि ये द्वार वास्तव में पाताल लोक का द्वार है जिसके खुलने से आसुरी शक्तियां मानवता का नाश कर देंगी।
स्थानीय लोगों का विश्वास है कि इस द्वार के खुलने से भयानक प्राकृतिक आपदाएं आएंगी।
ऐसी मान्यता है कि इस द्वार की रक्षा “कांजीरोट्टू” नामक एक यक्षणी करती है और जिसने भी इसे खोला वो निश्चित रूप से उसका रक्तपान करेगी। कांजीरोट्टू यक्षिणी की अपनी अलग ही कथा है जिसे हम विस्तार से किसी और लेख में जानेंगे।
एक कथा के अनुसार कई देवताओं ने भगवान विष्णु के आठवें अवतार श्री बलराम से वरदान मांगे। बलराम ने सभी की इच्छाओं को पूर्ण किया और वे सारे देवता आज भी इस द्वार की रक्षा कर रहे हैं।
इस द्वार के पास भगवान नृसिंह की उग्र प्रतिमा भी है इसीलिए लोगों का मानना है कि इसे खोलने वाले को नृसिंहदेव के कोप का भाजन बनना पड़ेगा।
कुछ मान्यताओं के अनुसार ये द्वार कुछ और नहीं बल्कि नर्क का द्वार है।
कई विद्वान मानते हैं कि ये जो इतना सारा खजाना निकल रहा है वो सिर्फ हमें ललचाने के लिए है ताकि उस लालच में हमें अपने विनाश के और निकट आते चले जाएँ।
सन १९३३ में एमिली गिलक्रिस्ट नामक लेखिका ने “त्रावणकोर – अ गाइड बुक फॉर विसिटोर्स” नाम की पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने बताया कि वर्ष १९०८ में दौलत के लालच में इस द्वार को खोलने का प्रयास किया गया था किन्तु ना जाने कहाँ से असंख्य नागों ने आकर वहां उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति को डस लिया जिससे सभी की मृत्यु हो गयी।
त्रावणकोर के राजपरिवार का मानना है कि अंतिम बार इस द्वार को राजपरिवार के सदस्यों द्वारा ही सन १८८० में खोला गया था और उस समय इस द्वार के अंदर लगभग १२००० करोड़ का खजाना रखा हुआ था। यदि उसे आज के समय में जोड़ें तो वो रकम १ ट्रिलियन डॉलर से भी कहीं अधिक होती है। यदि उनका मूल्य उनके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक मूल्य को जोड़ कर निकाला जाये तब तो उसकी कोई गिनती नहीं हो सकती।
इन छह तहखानों के अतिरिक्त दो और तहखानों का पता चला है जिसे सरकार ने वॉल्ट G और वॉल्ट H का नाम दिया है। वॉल्ट B की भांति ही ये दोनों तहखाने भी आज तक खोले नहीं गए है।
जब से सरकार ने इस मंदिर से धन निकालने का कार्य आरम्भ किया है, इसमें कई चोरियां हुई है। २०१७ में इस टीम के मुख्य ऑडिटर विनोद राय ने उच्चतम न्यायलय को बताया कि पिछले कुछ महीनों में इस मंदिर से ७६९ स्वर्ण कलशों और कुछ अन्य चीजों की चोरी हुई है जिसकी कुल कीमत १८९ करोड़ रुपयों से भी अधिक है।
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