Jyanti : जानिए कौन थे संत शिरोमणि रविदास, आज है जिनका जयंती, पढ़िए कथा
गुरु रविदास जयंती हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ महीने की पूर्णिमा को होती है। ग्रेगोरियन कैलेंडर पर, यह आमतौर पर फरवरी में पड़ता है। रविदास एक प्रसिद्ध रहस्यवादी कवि और गीतकार थे, जो 1400 और 1500 ईस्वीं के बीच में प्रचलित थे। उनका “भक्ति आंदोलन” पर बहुत ज्यादा प्रभाव था, जो हिंदू धर्म के अनुसार एक “आध्यात्मिक भक्ति आंदोलन’ था। बाद में इस आंदोलन ने नया रूप ले लिया और सिख धर्म की शुरुआत हुई। रविदास के भक्ति छंदों को सिख धर्मग्रंथों में गुरु ग्रंथ साहिब के नाम से शामिल किया गया था।
हालांकि, उनके अनुयायियों ने 21 वीं सदी में ‘रविदासिया’ धर्म की स्थापना की। रविदासिया के अनुयायी हर साल गुरु रविदास जयंती श्रद्धापूर्वक मनाते हैं। भक्त विभिन्न अनुष्ठान करते हैं और गुरु रविदास के गीतों और कविताओं का जाप करते हैं। सभी श्रद्धालु, गुरु रविदास की तस्वीर के साथ जुलूस निकालते हैं और गंगा नदी में स्नान करते हैं। कुछ लोग रविदास को समर्पित मंदिर की तीर्थ यात्रा पर भी जाते हैं और अपनी पूजा-अर्चना करते हैं।
रविदाजी को पंजाब में रविदास कहा। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान में उन्हें रैदास के नाम से ही जाना जाता है। गुजरात और महाराष्ट्र के लोग ‘रोहिदास’ और बंगाल के लोग उन्हें ‘रुइदास’ कहते हैं। कई पुरानी पांडुलिपियों में उन्हें रायादास, रेदास, रेमदास और रौदास के नाम से भी जाना गया है। कहते हैं कि माघ मास की पूर्णिमा को जब रविदास जी ने जन्म लिया वह रविवार का दिन था जिसके कारण इनका नाम रविदास रखा गया। उनका जन्म माघ माह की पूर्णिमा को हुआ था।
संत शिरोमणि कवि रविदास का जन्म माघ पूर्णिमा को 1376 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर के गोबर्धनपुर गांव में हुआ था। उनकी माता का नाम कर्मा देवी (कलसा) तथा पिता का नाम संतोख दास (रग्घु) था। उनके दादा का नाम श्री कालूराम जी, दादी का नाम श्रीमती लखपती जी, पत्नी का नाम श्रीमती लोनाजी और पुत्र का नाम श्रीविजय दास जी है। रविदासजी चर्मकार कुल से होने के कारण वे जूते बनाते थे। ऐसा करने में उन्हें बहुत खुशी मिलती थी और वे पूरी लगन तथा परिश्रम से अपना कार्य करते थे।
उनका जन्म ऐसे समय में हुआ था जब उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में मुगलों का शासन था चारों ओर अत्याचार, गरीबी, भ्रष्टाचार व अशिक्षा का बोलबाला था। उस समय मुस्लिम शासकों द्वारा प्रयास किया जाता था कि अधिकांश हिन्दुओं को मुस्लिम बनाया जाए। संत रविदास की ख्याति लगातार बढ़ रही थी जिसके चलते उनके लाखों भक्त थे जिनमें हर जाति के लोग शामिल थे। यह सब देखकर एक परिद्ध मुस्लिम ‘सदना पीर’ उनको मुसलमान बनाने आया था। उसका सोचना था कि यदि रविदास मुसलमान बन जाते हैं तो उनके लाखों भक्त भी मुस्लिम हो जाएंगे। ऐसा सोचकर उनपर हर प्रकार से दबाव बनाया गया था लेकिन संत रविदास तो संत थे उन्हें किसी हिन्दू या मुस्लिम से नहीं मानवता से मतलब था।
संत रविदासजी बहुत ही दयालु और दानवीर थे। संत रविदास ने अपने दोहों व पदों के माध्यम से समाज में जातिगत भेदभाव को दूर कर सामाजिक एकता पर बल दिया और मानवतावादी मूल्यों की नींव रखी। रविदासजी ने सीधे-सीधे लिखा कि ‘रैदास जन्म के कारने होत न कोई नीच, नर कूं नीच कर डारि है, ओछे करम की नीच’ यानी कोई भी व्यक्ति सिर्फ अपने कर्म से नीच होता है। जो व्यक्ति गलत काम करता है वो नीच होता है। कोई भी व्यक्ति जन्म के हिसाब से कभी नीच नहीं होता। संत रविदास ने अपनी कविताओं के लिए जनसाधारण की ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। साथ ही इसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और रेख्ता यानी उर्दू-फारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। रविदासजी के लगभग चालीस पद सिख धर्म के पवित्र धर्मग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहब’ में भी सम्मिलित किए गए है।
कहते हैं कि स्वामी रामानंदाचार्य वैष्णव भक्तिधारा के महान संत हैं। संत रविदास उनके शिष्य थे। संत रविदास तो संत कबीर के समकालीन व गुरूभाई माने जाते हैं। स्वयं कबीरदास जी ने ‘संतन में रविदास’ कहकर इन्हें मान्यता दी है। राजस्थान की कृष्णभक्त कवयित्री मीराबाई उनकी शिष्या थीं। यह भी कहा जाता है कि चित्तौड़ के राणा सांगा की पत्नी झाली रानी उनकी शिष्या बनीं थीं। वहीं चित्तौड़ में संत रविदास की छतरी बनी हुई है। मान्यता है कि वे वहीं से स्वर्गारोहण कर गए थे। हालांकि इसका कोई आधिकारिक विवरण नहीं है लेकिन कहते हैं कि वाराणसी में 1540 ईस्वी में उन्होंने देह छोड़ दी थी।
वाराणसी में संत रविदास का भव्य मंदिर और मठ है। जहां सभी जाति के लोग दर्शन करने के लिए आते हैं। वाराणसी में श्री गुरु रविदास पार्क है जो नगवा में उनके यादगार के रुप में बनाया गया है जो उनके नाम पर ‘गुरु रविदास स्मारक और पार्क’ बना है।
गुरु रविदास की कथा
एक कथा के अनुसार एक दिन संत रविदास अपनी कुटिया में बैठे प्रभु का स्मरण करते हुए अपने काम में व्यस्त थे। उसी समय एक ब्राह्मण रैदासजी की कुटिया पर आया और उनसे बोला कि मैं गंगाजी में स्नान के लिए जा रहा था, रास्ते में आपके दर्शन की इच्छा से यहां चला आया। रविदास जी ने एक मुद्रा देते हुए कहा कि आप गंगा स्नान करने जा रहे हैं तो यह एक मुद्रा मेरी तरफ से गंगा मैया को अर्पण कर दीजिएगा। ब्राह्मण जब स्नान करने गंगाजी पहुंचा और स्नान कर जब पानी में मुद्रा डालने लगा तो गंगा मैया ने जल में से अपना हाथ निकालकर वह मुद्रा ब्राह्मण से ले ली और उसके बदले में ब्राह्मण को एक सोने का कंगन दे दिया। ब्राह्मण गंगा मैया के द्वारा दिया कंगन लेकर लौटते हुए, नगर के राजा से मिलने जा पहुंचा। राजा को प्रसन्न करने के लिए ब्राह्मण ने वह कंगन राजा को देने का विचार किया। उसने वह कंगन राजा को भेंट में दे दिया। राजा ने उस ब्राह्मण को बहुत-सी मुद्राएं देकर विदा किया। ब्राह्मण के घर जाने के बाद, राजा ने वह कंगन अपनी महारानी को प्रेम से तोहफे में दे दिया। महारानी बहुत खुश हुई और राजा से बोली कि कंगन तो बहुत सुंदर है, लेकिन क्या बिल्कुल ऐसा ही एक और कंगन नहीं मंगा सकते हैं। एक कंगन अच्छा नहीं लगता है। राजा ने अपनी पत्नी से दूसरा वैसा ही कंगन मंगवा कर देने का वादा किया। राजा से ब्राह्मण को बुला कर वैसे ही दूसरा कंगन लेकर देने को कहा। ऐसा ना होने की परिस्थिति में उसे दंड का पात्र बनना पड़ेगा। खबर सुनते ही ब्राह्मण के होश उड़ गए और वह पछताने लगा कि राजा को कंगन दे कर बहुत बड़ी गलती कर दी।
परेशान ब्राह्मण रविदास जी के घर पहुंचा और पूरी कथा उन्हें कह सुनाई। और ये भी कहा कि गंगा जी से मिले कंगन जैसा कंगन अगर मैंने राजा को तीन दिन में नहीं दिया तो वे मुझे कठोर दंड देंगे। ब्राह्मण ने क्षमा मांगी कि आपको उस कंगन के बारे में बिना बताए मैंने उसे राजा को दे दिया। रविदास जी ने ब्राह्मण को शांत करते हुए कहा कि मैं तुमसे नाराज नहीं हुं। मैं वैसे भी इस कंगन का क्या करता। लेकिन अभी मैं गंगा मैया से प्रार्थना जरूर कर सकता हुं कि वे वैसे ही दूसरा कंगन दें जिससे तुम्हारा मान-सम्मान बच जाए। ऐसा कह कर रैदासजी (रविदास जी) ने अपनी वह कठौती उठाई जिसमें वे चमड़ा गलाते थे और उसे जल से भर दिया। उन्होंने गंगा मैया का आह्वान कर अपनी कठौती से जल छिड़का। उसके बुलाने पर गंगा मैया प्रकट हो गई और रैदास जी की बात सुनकर उन्होंने एक और कंगन ब्राह्मण को दे दिया। वह कंगन राजा को भेंट करने के लिए ब्राह्मण प्रसन्न होकर चला गया ।
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