जानिए, काशी में कब कहां – कहां निवास करते हैं देवधिदेव महादेव
काशी के कांचनशाख महावट वृक्ष के छाव में बैठ अपने दिन कार्य के संदर्भ में धर्मराज से देवाधिदेव महादेव अपने तीर्थस्थान एवं देवस्थान दर्शन पूजन क्रम के वर्णन में कहते है —
परं लिङ्गार्चनस्थानमविमुक्तेश्वरेश्वरम् ।
तत्र पूजां सकृत्कृत्वा कृतकृत्यो नरो भवेत् ।।
अर्थात –
मेरे लिंग पूजन के प्रधान स्थान अविमुक्तेश्वर हैं, वहाँ पर यदि कोई मनुष्य एक बार भी पूजा कर ले तो कृतकृत्य हो जाता है।
सायं पाशुपतीं सन्ध्यां कुर्यां पशुपतीश्वरे ।
विभूतिधारणात्तत्र पशुपाशैर्न वध्यते ।।
अर्थात –
संध्या के समय मैं पशुपतीश्वर पर शैवी-संध्या करता हूँ, उस वेला वहाँ पर विभूति धारण करने ही से पशुपाश में बँधना नहीं पड़ता।
प्रातः सन्ध्यां करोम्येव सदोङ्कारनिकेतने ।
तत्रैकाऽपि कृता सन्ध्या सर्वपातककृन्तनी ।।
अर्थात –
प्रातः काल की संध्या (तो) मैं सदैव ओंकारेश्वर के मन्दिर में करता हूँ. (क्योंकि) वहाँ पर एक भी संध्या करने से समस्त पाप दूर हो जाते हैं।
वसामि कृत्तिवासेऽहं सदा प्रतिचतुर्दशि ।
अत्र जागरणं कृत्वा चतुर्दश्यां न गर्भभाक् ।।
अर्थात –
मैं प्रत्येक चतुर्दशी को कृत्तिवासेश्वर पर वास करता हूँ, वहाँ पर चतुर्दशी को जागरण करने से गर्भभागी नहीं होना पड़ता ।
रत्नेश्वरोऽर्चितो दद्यान्महारत्नानि भक्तितः ।
रत्नैः समर्च्य तल्लिङ्गं स्त्रीरत्नादि लभेन्नरः ॥
अर्थात –
भक्ति पूर्वक रत्नेश्वर के पूजन करने से वह बहुत भारी रत्नों को देते हैं एवं जो नर रत्नों से उस लिंग का पूजन करता है, उसे स्त्रीरत्न इत्यादि प्राप्त होते हैं।
विष्टपत्रितयान्तस्थोऽप्यहं लिङ्गे त्रिविष्टपे ।
तिष्ठामि सततं भक्तमनोरथसमृद्धये ॥
अर्थात –
मैं त्रैलोक्य भर में सर्वव्यापी होने पर भी भक्तों की मनोरथ सिद्धि के लिए त्रिलोचन मंदिर में सदैव बैठा रहता हूँ ।
विरजस्कं महापीठं तत्र संसेव्य मानवः ।
विरजा जायते नूनं चतुर्नदकृतोदकः ॥
अर्थात –
मनुष्य वहाँ पर विरजस्क महापीठ का सेवन और चतुर्नद तीर्थ में उदक्क्रिया को कर अवश्य ही रजोगुण से शून्य हो जाता है।
महादेवे महापीठं मम साधकसिद्धिदम् ।
तत्पीठदर्शनादेव महापापैः प्रमुच्यते ।।
अर्थात –
महादेव में मेरा साधकों का सिद्धिदायक महापीठ है, उस पीठ के दर्शन करने ही से कठोर पापों से भी छुट्टी हो जाती है।
पितृप्रीतिप्रदं पीठं वृषभध्वजसंज्ञकम् ।
पितृतर्पणकृत्तत्र पितॄंस्तारयति क्षणात् ॥
अर्थात –
पितरों का परम प्रीतिप्रद वृषभध्वज तीर्थ (पीठ) है, वहाँ पर पितरों का तर्पण करने वाला क्षण मात्र में पितरों का उद्धार कर देता है।
आदिकेशवपीठेऽहमादिकेशवरूपधृक् ।
श्वेतदीपं नये भक्तान् वैष्णवानतिवल्लभान् ॥
अर्थात –
आदिकेशव तीर्थ पर मैं आदिकेशव रूप से रहता हूँ। वहाँ के अपने परमप्रिय वैष्णव भक्तों को श्वेतद्वीप प्राप्त करा देता हूँ ।*
तत्रैव मङ्गलापीठे सर्वमङ्गलदायिनि ।
उपपञ्चनदे तीर्थे भक्तान् सन्तारयाम्यहम् ।।
अर्थात –
सकल मंगलदायक, मंगला पीठ पर जो पंचनदतीर्थ के समीप में है, मैं अपने भक्तों का निस्तार करता हूँ।
बिन्दुमाधवरूपेण यत्राऽहं वैष्णवान् जनान् ।
नये पञ्चनदस्नातांस्तद्विष्णोः परमं पदम् ॥
अर्थात –
जहाँ पर मैं बिन्दुमाधव का रूप धारण कर, पंचनदतीर्थ में स्नान करने वाले अपने वैष्णव भक्तों को विष्णु के प्रसिद्ध परम पद पर पहुंचा देता है।
पञ्चमुद्रे महापीठे ये वीरेश्वरसेवकाः ।
तेषां परमनिर्वाणं कालेनाऽल्पेन जायते ॥
अर्थात –
पंचमुद्र नामक महापीठ पर जो लोग वीरेश्वर के सेवक हैं, वे थोड़े ही काल में निर्वाणपद को प्राप्त हो जाते हैं।
तत्र सिद्धेश्वरीपीठे चन्द्रेश्वरसमीपतः ।
तत्र सन्निधिकर्तॄणां सिद्धिः षण्मासतो भवेत् ॥
अर्थात –
चन्द्रेश्वर के समीप में सिद्धेश्वरी पीठ है, वहाँ पर रहने वालों की छह मास में सिद्धि हो जाती है।*
काश्यां च योगिनीपीठे योगसिद्धिविधायिनि ।
सिद्धीरुच्चाटनाद्याश्च कैर्न लब्धाः सुसाधकैः ॥
अनेकानीह पीठानि सन्ति काश्यां पदे पदे ।
परं धर्मेशपीठस्य काचिच्छक्तिरनुत्तमा ।।
अर्थात –
काशी में योगसिद्धि- विधायक योगिनीपीठ में किन सुसाधकों ने उच्चाटनादि सिद्धियों को नहीं पाया (है) ? इस काशीपुरी में पद-पद पर अनेक पीठ हैं। पर धर्मेश्वर पीठ की कुछ अपूर्व शक्ति है, महिमा है।
यत्रामी बालकीराश्च निर्मलज्ञानभाजनम् ।
आसुः सदुपदेशान्मे त्रात त्रातेति भाषिणः॥
एतद्धर्मेश्वरं पीठ त्यजाम्यद्यदिनावधि ।
न कदाचित्तरणिज त्वत्तपोवनमुत्तमम् ॥
अर्थात –
जहाँ पर “रक्षा करो, रक्षा करो” ऐसा आर्तनाद करनेवाले ये सब सुग्गों के बच्चे भी मेरे उत्तम उपदेश से निर्मल ज्ञान के पात्र बन गये हैं । इसलिए हे सूर्यनन्दन ! आज से मैं तुम्हारे इस उत्तम तपोवन धर्मेश्वर पीठ को कभी नहीं छोडूंगा।
विश्वनाथ मंदिर 1.5 km, कालभैरव 2 km, संकटमोचन .75km, अस्सी घाट .50 km
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