रम्भा एकादशी : जानिये व्रत का विधान और क्या है इससे जुडी कथा
पापों का शमन और सुखमय जीवन के लिए भगवान श्रीविष्णु एवं श्री लक्ष्मीजी की पूजा
भारतीय सनातन परम्परा के हिन्दू धर्मग्रन्थों में हर माह के विशिष्ट तिथि की खास पहचान है। सभी तिथियों का किसी न किसी देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना से सम्बन्ध है। तिथि विशेष पर पूजा-अर्चना करके मनोरथ की पूर्ति की जाती है। इसी क्रम में रम्भा एकादशी का व्रत 21 अक्टूबर, शुक्रवार को रखा जाएगा। कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की एकादशी तिथि 20 अक्टूबर, गुरुवार को सायं 4 बजकर 05 मिनट पर लगेगी जो कि 21 अक्टूबर, शुक्रवार की सायं 5 बजकर 23 मिनट तक रहेगी। जिसके फलस्वरूप रम्भा एकादशी का व्रत 21 अक्टूबर, शुक्रवार को रखा जाएगा।
व्रत का विधान
व्रत के दिन व्रतकर्ता को ब्रह्म मुहूर्त में उठकर अपने समस्त दैनिक कृत्यों से निवृत्त होकर गंगा-स्नानादि करना चाहिए। गंगा-स्नान यदि सम्भव न हो तो घर पर ही स्वच्छ जल से स्नान करना चाहिए। अपने आराध्य देवी-देवता की पूर्जा-अर्चना के पश्चात् योगिनी एकादशी के व्रत का संकल्प लेना चाहिए। व्रत के दिन प्रात:काल सूर्योदय से ही अगले दिन सूर्योदय तक जल आदि कुछ भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। व्रत का पारण दूसरे दिन द्वादशी तिथि को स्नानादि के पश्चात् इष्ट देवी-देवता तथा भगवान पुण्डरीकाक्ष एवं भगवान श्री विष्णु जी की पूजा-अर्चना करने के पश्चात् किया जाता है।
योगिनी एकादशी का व्रत महिला व पुरुष दोनों के लिए समान रूप से फलदायी है। आज के दिन सम्पूर्ण दिन निराहार रहना चाहिए, अन्न ग्रहण करने का निषेध है। विशेष परिस्थितियों में दूध या फलाहार ग्रहण किया जा सकता है। व्रत कर्ता को दिन में शयन नहीं करना चाहिए। विधि-विधानपूर्वक योगिनी एकादशी के व्रत व भगवान श्रीविष्णुजी की विशेष कृपा से जीवन के समस्त पापों का शमन हो जाता है, साथ ही जीवन में सुख-समृद्धि, आरोग्य व सौभाग्य बना रहता है। अपने जीवन में मन-वचन कर्म से पूर्णरूपेण शुचिता बरतते हुए यह व्रत करना विशेष फलदायी रहता है। आज के दिन ब्राह्मण को यथा सामथ्र्य दक्षिणा के साथ दान करके लाभ उठाना चाहिए।
पौराणिक कथा
प्राचीन समय की बात है एक मुचकुन्द नाम का राजा था। वह बहुत ही दानी व धर्मात्मा होने के कारण राज्य की प्रजा उसे अपने भगवान स्वरूप मानती थी। वह राजा प्रति महीने एकादशी का व्रत पूरे विधि-विधान से करता था। अपने राजा को इस तरह प्रत्येक एकादशी का व्रत करते देख वहा की प्रजा की सभी एकादशीयों का व्रत करने लगी। राजा मुचकुन्द के एक चन्द्रभागा नाम की पुत्री थी जो अपने पिता के साथ प्रति महीने एकादशी का व्रत रखती थी। ऐसे में चन्द्रभागा विवाह योग्य हो गई और उसके पिता ने उसकी शादी राजा चन्द्रसेन के पुत्र राजकुमार शोभन के साथ कर दी। शोभन ज्यादातर समय अपने ससुर मुचकुन्द के साथ ही व्यतीत करता था। और वह भी धीरे-धीरे एकादशी का व्रत रखना आरंभ कर दिया।
एक बार कार्तिक मास की कृष्णपक्ष की एकादशी आई और सभी ने एकादशी का व्रत रखा हुआ था। किन्तु राजकुमार शोभन इस दिन भूख से इतना व्याकुल हो गया की उसकी मृत्यु हो गई। शोभन की मृत्यु पर राजा मुचकुन्द व रानी तथा उनकी पुत्री चन्द्रभागा जोर-जोर से विलाप करने लगे। किन्तु तीनों ने इस एकादशी का व्रत लगातार रखा।
मृत्यु के पश्चात् शोभन को एकादशी के व्रत के प्रभाव से मन्दराचल पर्वत पर स्थित देव नगर में आवास मिला। और वहाँ पर शोभन की सेवा में रम्भादि आदि अप्सरायें तत्पर थी। एक दिन राजा मुचकुन्द किसी काम से मन्दराचल पर्वत पर गऐ। तो वहाँ पर उन्होंने अपने दामाद शोभन को देखा। जिसके बाद वह अपने घर आया और अपनी पत्नी व पुत्री चन्द्रभागा को सारी बात बताई। चन्द्रभागा यह समाचार पाकर अपने पति के पास मन्दराचल पर्वत पर चली आई। यहाँ पर शोभन और चन्द्रभागा दोनों सुखी पूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगे। और दोनो की सेवा में दिन रात रम्भादि नामक अप्सराएँ लगी रहती थीं। जिस कारण इस एकादशी को रंभा एकादशी कहा जाता है।
— ज्योतिॢवद् विमल जैन
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