आखिर जेठ के तपती दुपहरियां में बगीचे में वो कौन थी….
बात तीन दशक से ज्यादा पुरानी मगर सत्य है। मेरे पुराने घर के पीछे हमारी बांस की लंबी चौड़ी कोठी थी। उससे सटे दो बड़े बगीचे थें। एक में अमरूद तो दूसरे में आम के बड़े-बड़े पेड़। कालांतर में बांस की कोठी अब कालोनी बन चुकी है और बगीचे में गगनचुंबी आदमियों के दड़बे जिन्हें हम फ्लेट अपार्टमेंट कहते हैं। उन बसवारीयों के बीच भी आम के ताड़ जैसे पेड़ थें। बचपन का बहुत सा हिस्सा उन आम के पेड़ों पर पत्थर मारने या पतंग लूटने में बिता है। जबकि बसवारी में जहरीले सांपो का अड्डा भी था। एक बार तो घास में छुपे कोबरा के ऊपर पैर रखने से बच गया था।हुआ यूं कि मैं अमरूद के बगीचे से अमरूद तोड़-ताड़ के चबाते हुये आ रहा था। चीनीहवा आम के पेड़ नीचे बड़े घास उगे थें। वहीं कोबरा महोदय विश्राम की मुद्रा में थें। मैं ज्यों ही उनके ऊपर पैर रखता उसके पहले ही वह दूसरे तरफ देखते हुए फुंफकार के उठ बैठें। उन्हें देखकर मेरी तो जुबान ही मुँह से जुदा हो गयी। बहरहाल वो वहां से उठें तो सीधे बसवारी में घुस गयें। एक बार और जब अमरूद तोड़ने के उद्देश्य से उसकी दीवाल पर चढ़कर नीचे कूदने को था तब नजर गई तो दीवाल से सटकर एक बड़ी सी धामन(रैट स्नेक) पड़ी थी। मैं कूदता तो उसपर ही जाता।
बंसवारी अमरूद का बाग और आम का बाग तीनों एकदूसरे से सटे हुये थे। बसवारी हम लोंगो के संयुक्त परिवार की थी। अमरूद का बाग जालान परिवार का जिसमें अमरूद, जामुन, चकोतरा, फालसा के बहुतायत पेड़ थे। और आम वाला बगीचा शाह घराने का था उनमें से एक बड़ा आम का एक पेड़ बहुत मीठे मजेदार पके आम गिराता था । दोनों बाग में हम और हमारे हमउम्र बच्चे चोरी छिपे आम अमरूद तोड़ने जाते थें।
चूंकि गर्मी का सीजन उमस तो देती है। मगर रसीले आम भी इसलिए हमें उसका इंतजार रहता था। गर्मियों में हम सब छत पर सोते थें। मेरे घर के बगल से गली जाकर सीधे उस बसवारी में मिलती थी। छत के बगल में नीम का बड़ा पेड़ और बसवारी बगीचे की वजह से गर्मी में छत पर देशी एसी का मजा मिलता था।
मगर एक अफवाह थी कि बंसवारी में चुड़ैल रहती है। इसलिए छत पर कोई अकेला न सोये चाचा चाची उनके लड़के मने संयुक्त क्योंकि बसवारी वाली गली से होकर वो अकेला न पाकर दबोच न ले।
एक दिन रात औऱ भोर के बीच का समय था। छत पर हम सोये थें। हवाएं सरसर चल रही थीं। इतनी तेज की आम गिरने की बद्द-बद्द आवाज छत तक आ रही थी। अंधेरे में आम का पेड़ किसी दैत्य की माफ़िक हिलडुल रहा था जैसे हाथ हिलाकर कह रहा हो आओ-आओ।
अचानक से भईया उठें(वर्तमान में गुजर चुके हैं) और हमें जगाते हुये बोलें ।बच्ची चल आम बीने हम उनके पीछे-पीछे हो लिये। क्योंकि सुबह सब लोग आम बिन लेते।द
हम बसवारी डांकते हुये आम वाले ऊंची दीवाल पर चढ़ने को हुयें। पहले भईया को चढ़ना था। फिर मुझे वह ऊपर खिंचते उसके बाद नीचे लटकते हुए कूद जाना था। फिर आम बीनकर वापस ईंट की दीवाल के जईंन में(गैप) उंगली फँसाते हुये चढ़ना फिर दूसरे तरफ उतर जाना था। मग़र भईया चढ़े फिर बजाय मुझे चढ़ाने के वह बिना आम बीने वापस हो लियें। भगवान का नाम लेते हुये दीवाल से मेरी तरफ कूद गयें । हम पूछें कि का भयल भईया अमवा न बिनबाs… वो कुछ बोले नहीं। बस इतना कहें चल घरे बतावत हई।
घर आया तो बताने लगे कि बच्ची ज्यों हम दीवाल के ऊपर चढ़े नीचे एक लंबी औरत सफेद साड़ी में उकड़ू सी बैठी थी। जिसकी साड़ी के बाद सिर्फ आंखे ही किसी ट्यूबलाइट की माफ़िक चमक रही थी। आकृति स्पष्ट थी बाकी चेहरा स्पष्ट नहीं था। अगर हम लोग कूदते तो सीधा उसके बगल में गिरते। जब हम चढ़ें तो वह चौककर पीछे मुड़ी । तब तलक मैं तुम्हारे तरफ बात करते हुए कूद गया था। उसके बाद रात छोड़िये महीनों दिन में आम बीनने नहीं गया मैं। वह डरावना मंजर आज भी स्मृतियों में जस का तस है।
विनय मौर्या बनारस।
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