आइये जानते हैं, ऋषि, मुनि, साधु, संन्यासी, तपस्वी, योगी, संत और महात्मा में क्या है अंतर ?
हिन्दू धर्म में ऋषि-मुनियों का क्या महत्त्व रहा है वो बताने की आवश्यकता नहीं है। शास्त्रों में इन्हे समाज का मार्गदर्शन करने वाला कहा गया है। अपने ज्ञान और साधना से ये सदैव समाज का कल्याण करते आये हैं। आम तौर पर हम इन्हे एक दूसरे के पर्यायवाची मानते हैं, किन्तु इनमे भी अंतर होता है। आइये इनके विषय में जानते हैं।
ऋषि:
इस शब्द के विषय में पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने कहा है कि ऋषि वो है जो रिसर्च, अर्थात शोध करता है। “रिसर्च” शब्द ही संस्कृत शब्द “ऋषि” से निकला है। ऋषि शब्द “ऋष” मूल से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ देखना होता है। इन्हे श्रुति ग्रंथों का अध्ययन एवं स्मृति ग्रंथों की रचना और शोध करने के लिए जाना जाता है। साधारण शब्दों में कहें तो वैसे व्यक्ति जिन्होंने अपनी विशिष्ट और विलक्षण एकाग्रता के बल पर वैदिक परंपरा का अध्ययन किया, विलक्षण शब्दों के दर्शन किये, उनके गूढ़ अर्थों को समझा एवं प्राणी मात्र के कल्याण हेतु उस ज्ञान लिखित रूप दिया, वो ऋषि कहलाये। ऋषियों के लिए कहा गया है – “ऋषि: तु मन्त्र द्रष्टारा : न तु कर्तार:”, अर्थात ऋषि मंत्र को देखने वाले हैं न कि उस मन्त्र की रचना करने वाले। किन्तु जिन ऋषियों ने स्वयं ऋचाओं की रचना की, वही महर्षि, अर्थात महान ऋषि कहलाये। इन्हे अविष्कारक के रूप में भी जाना जाता है। ऋषियों के सम्बन्ध में मान्यता थी कि वे अपने योग से परमात्मा को उपलब्ध हो जाते थे और जड़ के साथ साथ चैतन्य को भी देखने में समर्थ होते थे। वे भौतिक पदार्थ के साथ साथ उसके पीछे छिपी ऊर्जा को भी देखने में सक्षम होते थे। ऋषि भी कई प्रकार के होते हैं जैसे महर्षि, देवर्षि, राजर्षि, ब्रह्मर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि, सप्तर्षि इत्यादि। इनके बारे में हम विस्तार से किसी और लेख में जानेंगे।
मुनि:
मुनि शब्द संस्कृत के “मौन” से निकला है। ऐसे साधक जो शांत रहें या ना अथवा बहुत कम बोलें, उन्हें ही मुनि कहा जता है। इनमें राग-द्वेष का आभाव होता था। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार जिनका चित्त दुःख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निश्छल बुद्धि वाले व्यक्ति मुनि कहलाते हैं। ऐसे ऋषि जो एक विशेष अवधि के लिए मौन या बहुत कम बोलने का शपथ लेते थे उन्हीं मुनि कहा जाता था। प्राचीन काल में मौन को एक साधना या तपस्या के रूप में माना गया है। बहुत से ऋषि इस साधना को करते थे और मौन रहते थे। ऐसे ऋषियों के लिए ही मुनि शब्द का प्रयोग होता है। कुछ ऐसे ऋषियों के लिए भी मुनि शब्द का प्रयोग हुआ है जो हमेशा ईश्वर का जाप करते थे और नारायण का ध्यान करते थे, जैसे नारद मुनि। मुनि शब्द का चित्र,मन और तन से गहरा नाता है। ये तीनों ही शब्द मंत्र और तंत्र से सम्बन्ध रखते हैं। ऋग्वेद में चित्र शब्द आश्चर्य से देखने के लिए प्रयोग में लाया गया है। वे सभी चीज़ें जो उज्जवल है, आकर्षक है और आश्चर्यजनक है वे चित्र हैं। अर्थात संसार की लगभग सभी चीज़ें चित्र शब्द के अंतर्गत आती हैं। मन कई अर्थों के साथ साथ बौद्धिक चिंतन और मनन से भी सम्बन्ध रखता है। अर्थात मनन करने वाले ही मुनि हैं। मन्त्र शब्द मन से ही निकला माना जाता है और इसलिए मन्त्रों के रचयिता और मनन करने वाले मनीषी या मुनि कहलाये। इसी तरह तंत्र शब्द तन से सम्बंधित है। तन कोसक्रिय या जागृत रखने वाले योगियों को मुनि कहा जाता था। जैन धर्म में विशेषकर मुनियों का बड़ा महत्त्व है। आज भी आप उन्हें अपने मुख कपडे से ढके हुए देख सकते हैं। जैन धर्म के अनुसार २८ गुणों से युक्त व्यक्ति को ही मुनि कहते हैं। वे गुण हैं – जिनकी आत्मा संयम से स्थिर है, सांसारिक वासनाओं से रहित है, जीवों के प्रति रक्षा का भाव रखते हैं, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ईर्या (यात्रा में सावधानी), भाषा, एषणा (आहार शुद्धि), आदणिक्षेप (धार्मिक उपकरणव्यवहार में शुद्धि), प्रतिष्ठापना (मल मूत्र त्याग में सावधानी) का पालन करने वाले, सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायतसर्ग करने वाले, केशलोच करने वाले, नग्न रहने वाले, स्नान और दातुन नहीं करने वाले, पृथ्वी पर सोने वाले, त्रिशुद्ध आहार ग्रहण करने वाले एवं दिन में केवल एक बार भोजन करने वाले।
साधु:
साधना करने वाले व्यक्ति को साधु कहा जाता है। ये समाज से हट कर एकांत में, या कई बार समाज में ही रहकर किसी विषय की साधना करते थे और उस विषय में विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते थे। विषय को साधने या उसकी साधना करने के कारण ही उन्हें साधु कहा गया। आधुनिक काल में “साधु” प्रतीकात्मक शब्द भी है जिसे अच्छे और बुरे व्यक्ति में फर्क करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। आम बोलचाल में “साध” का अर्थ सीधा और दुष्टता से हीन होता है। संस्कृत में साधु शब्द से तात्पर्य है सज्जन व्यक्ति। लघुसिद्धांत कौमुदी में लिखा गया है – “साध्नोति परकार्यमिति साधु:”, अर्थात जो दूसरे का कार्य करे वह साधु है। साधु के लिए यह भी कहा गया है “आत्मदशा साधे”, अर्थात संसार दशा से मुक्त होकर आत्मदशा को साधने वाले साधु कहलाते हैं। साधु का एक अर्थ उत्तम भी होता है। ऐसे व्यक्ति जिसने अपने छः विकार – काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मत्सर का त्याग कर दिया हो, साधु कहलाता है।
संन्यासी:
यह शब्द अन्यों की भांति अत्यंत प्राचीन नहीं है। वैदिक काल में किसी संन्यासी का कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह शब्द कदाचित जैन और बौद्ध धर्म के अस्तित्व के बाद ही प्रचलन में आया होगा जिनमें संन्यास की बड़ी महत्ता है। हिन्दू धर्म में आदि शंकराचार्य को महान संन्यासी माना गया है। संन्यासी शब्द “संन्यास” से निकला है जिसका अर्थ है त्याग करना। अर्थात जिसने सांसारिक माया का त्याग कर दिया हो उसे ही संन्यासी कहते हैं। हिन्दू धर्म में भी जो चार आश्रम बताये गए हैं उनमें से अंतिम है संन्यास आश्रम। तो इस हिसाब से कोई भी व्यक्ति जो पहले तीन आश्रमों – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ से गुजरता हुआ अंतिम संन्यास आश्रम में प्रवेश करता है, वो संन्यासी कहलाता है। हिन्दू धर्म में तीन तरह के सन्न्यासियों का वर्णन है – परिव्राजक (भ्रमण करने वाले), यति (उद्द्येश्य की सहजता के साथ प्रयास करने वाले) एवं परमहंस (संन्यासी की उच्चत्तम श्रेणी)। वैसे व्यक्ति को भी संन्यासी कह सकते हैं जिनकी आतंरिक स्थिति स्थिर है, जो किसी भी परिस्थिति या व्यक्ति से प्रभावित नहीं होता है और हर हाल में स्थिर रहता है। उसे न तो ख़ुशी से प्रसन्नता मिलती है और न ही दुःख से अवसाद। इस प्रकार निरपेक्ष व्यक्ति जो सांसारिक मोह माया से विरक्त अलौकिक और आत्मज्ञान की तलाश करता हो संन्यासी कहलाता है।
तपस्वी:
जो तप अर्थात तपस्या करे, वो तपस्वी है। तप का अर्थ होता है ऊष्मा। किसी एक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जो व्यक्ति स्वयं के शरीर को कष्ट देकर ईश्वर की साधना में लिप्त रहते हैं उन्हें ही तपस्वी कहा जाता है। शारीरिक कष्ट का अर्थ कुछ भी हो सकता है जैसे भोजन और पानी का सेवन कम, अथवा समाप्त कर देना, किसी भी मौसम अथवा परिस्थिति में साधनारत रहना इत्यादि। इस शब्द का उल्लेख सबसे पुराने संदर्भ ऋग्वेद के ८.८२.७, बौधायन के धर्म शास्त्र, कात्यायन के श्रोत-सूत्र, पाणिनि के ४.४.१२८ आदि में पाया गया है, जहां इसका अर्थ दर्द या पीड़ा से संबंधित है। तपस्या पतंजलि के योग सूत्रों में वर्णित नियमों में से एक है। तपस्या का अर्थ आत्म-अनुशासन द्वारा स्वेच्छा से शारीरिक तीव्र इच्छा को रोकना और सक्रिय रूप से जीवन में एक उच्च उद्देश्य की प्राप्ति करना होता है। तपस्या में एक लक्ष्य का बड़ा महत्त्व होता है, जैसे भागीरथ की तपस्या का लक्ष्य गंगा को पृथ्वी पर लाना था।
योगी:
जो योग करे वो योगी। शिव-संहिता पाठ योगी वो है जिसे इस बात का ज्ञान है कि संपूर्ण ब्रह्मांड अपने शरीर के भीतर ही स्थित है। योग-शिखा-उपनिषद में दो प्रकार के योगियों का वर्णन आता है – पहले वो जो विभिन्न योग तकनीकों के माध्यम से सूर्य में प्रवेश करते हैं और दूसरे वो जो योग के माध्यम से सुषुम्ना-नाड़ी तक पहुंचते हैं तथा अमृत का सेवन करते हैं। योग के सन्दर्भ में नाड़ी वह मार्ग है जिससे होकर शरीर की ऊर्जा प्रवाहित होती है। योग में यह माना जाता है कि नाड़ियाँ शरीर में स्थित नाड़ीचक्रों को जोड़ती हैं। योगी शब्द उनके लिए भी प्रयोग में लाया जाता है जो योग अर्थात व्यायाम करते हैं।
संत:
जो शांत है वही संत है। यहाँ शांत केवल वाणी द्वारा नहीं बल्कि हर स्थिति में शांत रहने को कहा गया है। अर्थात ऐसे व्यक्ति जिसका नियंत्रण अपनी वाणी पर है, जिसके मन में कोई उद्वेग नहीं है, जो लालसा से मुक्त है, जिसका अपनी भूख प्यास पर नियंत्रण है और जो इच्छाओं से रहित है वही संत है। संत का एक अर्थ संतुलन बनाना भी होता है। हम साधारण मनुष्य संसार से सदैव जुड़े रहते हैं जो माया की अति है। उसी प्रकार साधु-तपस्वी इत्यादि संसार से पूरी तरह विरक्त रहते हैं और वो भी अति है। जो व्यक्ति इन दोनों स्थितियों में संतुलन बना कर रहता है वही संत है। अर्थात वो ना संसार से पूरी तरह जुड़ता है और ना ही उससे पूरी तरह विरक्त होता है। संसार में रहते हुए भी उससे विलग रहना ही संत की पहचान है।
महात्मा:
ये कोई विशेष श्रेणी नहीं है। ऐसा कोई भी व्यक्ति जो अपने ज्ञान और कर्मों द्वारा साधारण मनुष्यों से ऊपर उठ जाये उसे महात्मा, अर्थात महान आत्मा कहते हैं। इनका संन्यासी अथवा साधु होना आवश्यक नहीं। एक व्यक्ति जो गृहस्थ जीवन में भी उच्च आदर्श का प्रदर्शन करता है, वो भी महात्मा है। मनुष्य का ऋषि-मुनि इत्यादि बनना तो कठिन है किन्तु वो अपने संयम, आदर्श एवं आचरण से महात्मा अवश्य बन सकता है।
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