Holika : किसने दिया था होलिका को न जलने का वरदान, फिर आखिर क्यों जली होलिका
सबने स्कूल में या धार्मिक ग्रंथो में प्रह्लाद और होलिका की कथा पढ़ी होगी। लेकिन एक प्रश्न आता हैं कि जब होलिका को देवताओं से वरदान प्राप्त था, कि उसे अग्नि स्पर्श नहीं कर सकती, तो प्रह्लाद को अपने गोद में बिठाकर वह अग्निलपटों के साथ भस्म कैसे हो गई ? आखिरकार यह तो वरदान देने के नियमों के विपरीत है।
तो पहले जानते हैं इस कथा का मूल स्रोत श्री विष्णु पुराण को। कथा के अनुसार वर्णनानुसार हिरण्यकश्यप के पुरोहितों ने अग्निशिखा के समान प्रज्ज्वलित देह वाली “कृत्या” को उत्पन्न किया और प्रह्लाद के मारण हेतु उसे नियुक्त किया। श्रीहरि द्वारा अभय प्राप्त भक्त प्रह्लाद पर जब कृत्या के समस्त प्रयास विफल हो गए तो आवेशित होकर उस कृत्या ने समस्त पुरोहितों सहित स्वयं को नष्ट कर दिया। तत्पश्चात प्रह्लाद द्वारा पुरोहितों के हित में की गई प्रार्थना फलित होकर उन्हें पुनः जीवित कर पाई।
एक प्रसंग में यह भी वर्णन है कि होलिका को स्वयं ना जलने का वरदान था लेकिन वह प्रह्लाह को साथ में लेकर अग्नि में प्रवेश कर गई जिससे वरदान फलित नहीं हो पाया। और दूसरे प्रसंग के अनुसार होलिका को एक दिव्य वस्त्र प्राप्त था, जिसे ओढ़ कर वह जल नहीं सकती थी। होलिका दहन के समय वह वस्त्र उड़ प्रहलाद पर जा पहुँचा । प्रह्लाद तो ईश्वरीय कृपा से बच गए परंतु होलिका वस्त्र के अभाव में अग्नि में समर्पित हो गई।
वरदान फलित क्यों नहीं..
वरदान का फलित होना या ना होना वरदान प्राप्त करने वाले के भाव एवं विचारों पर निर्भर करता है। अगर वरदान प्राप्त करने वाला अपने वरदान का उपयोग स्वयं के स्वार्थ हेतु, दूसरों को कष्ट देने और विश्व विनाश के लिए करता है, तो वह वरदान उस व्यक्ति के लिए अनिष्टकारी सिद्ध होता है। वरदान का दुरुपयोग जब प्राप्तकर्ता द्वारा होने लगता है, तो तब विधि के विधान में ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न की जाती हैं, जिसमें वरदान का भी महत्व बना रहे और उसका दुरुपयोग करने वाले को भी दंड मिल सके।
वरदान जो उल्टा पड़ा …
भस्मासुर
किसी के शीश पर हाथ रख कर उसे भस्म करने का वरदान पाकर भस्मासुर नृशंस अत्याचारी बन चुका था । मद में चूर वह नृत्य करते करते इतना उन्मादित हो गया कि अपने सिर पर हाथ रख स्वयं को नष्ट कर गया।
जयद्रथ
पिता ने अपने पुत्र को वर दिया कि जिसके हाथ से तेरा मस्तक धरती पर गिरेगा, उसका कपाल सैकड़ों टुकड़ों में विभक्त हो जायेगा। अर्जुन ने जब उसका शिरोच्छेदन किया तो जयद्रथ का मस्तक, तपस्या में रत उसके पिता की गोद में लक्ष्य किया और ध्यानभंग की स्थिति में जयद्रथ का पिता स्वयं के वरदान का ग्रास बन गया।
कालयवन
कालयवन नामक असुर को वरदान था उसे युद्ध को कोई भी परास्त नहीं कर सकता और अपने आसुरी प्रवृति के अनुरूप उसने प्रजा का शोषण प्रारंभ किया। श्रीकृष्ण ने जब उसे युद्ध के लिए ललकारा, तो उसके युद्ध भूमि में प्रवेश करते ही, श्रीकृष्ण रणभूमि से भाग निकले।कालयवन पीछा करते करते, उस गुफा में जा पहुंचा जहां मुचुकुंद सदियों से विश्रामरत थे। भ्रमवश उन्हें श्रीकृष्ण समझ कर, वह मचकुंद को जगाने का प्रयास करने लगा। और जैसे ही मुचुकुंद की निद्रा भंग हुई, प्रथम दृष्टिपात से कालयवन काल कवलित हो गया।
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विश्वनाथ मंदिर 1.5 km, कालभैरव 2 km, संकटमोचन .75km, अस्सी घाट .50 km
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