© Moksh Bhumi – Kashi https://www.mokshbhumi.com/ Kashi Yatra Sun, 22 Sep 2024 17:26:22 +0000 en-GB hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.6.2 210952855 ब्राम्हणो के अभाव में ऐसे दें पितरों को जल, जानिए जल देते समय का मंत्र और क्रम, तिल और कुश का अभिप्राय https://www.mokshbhumi.com/2024/9823/ https://www.mokshbhumi.com/2024/9823/#respond Wed, 18 Sep 2024 16:59:18 +0000 https://www.mokshbhumi.com/?p=9823 – डॉ संतोष ओझा, काशी 9889881111 18 सितंबर से 16 दिवसीय श्राद्ध पितृ पक्ष प्रारंभ हो गया है। इस दौरान पितरों को तर्पण और पिंडदान दिया जाता है। तर्पण यानी […]

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– डॉ संतोष ओझा, काशी
9889881111

18 सितंबर से 16 दिवसीय श्राद्ध पितृ पक्ष प्रारंभ हो गया है। इस दौरान पितरों को तर्पण और पिंडदान दिया जाता है। तर्पण यानी जल देना और पिंडदान यानी भोजन देना। जैसे पशुओं का भोजन तृण और मनुष्यों का भोजन अन्न कहलाता है, वैसे ही देवता और पितरों का भोजन अन्न सार तत्व है। सार तत्व अर्थात गंध, रस और ऊष्मा ।

कैसे देते हैं पितरों को जल?

1. तृप्त करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं।
2. पितरों के लिए किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध तथा तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं।
3. तर्पण के प्रकार : तर्पण के 6 प्रकार हैं- 1. देव-तर्पण 2.ऋषि-तर्पण 3. दिव्य-मानव-तर्पण 4. दिव्य-पितृ-तर्पण 5. यम-तर्पण 6. मनुष्य-पितृ-तर्पण। सभी के लिए तर्पण करते हैं।

जल देते समय क्या बोलते हैं?

पितरों को जल देते समय ध्यानपूर्वक कहना चाहिए कि वसु रूप में मेरे पिता या पितृ जल ग्रहण करके तृप्त हों।

जल देते समय अपने गोत्र का नाम लें और इसी के साथ गोत्रे अस्मत्पितामह (पितामह का नाम) वसुरूपत् तृप्यतमिदं तिलोदकम गंगा जलं वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः. इस मंत्र का उच्चारण करते हुए 3 बार जल दें।

तिल और कुशा का महत्व

• कुशा को भगवान विष्णु का प्रतीक माना जाता और
तिल में भगवान विष्णु का वास होता है।

• माना जाता है कि जब कुशा से आप पितरों का तर्पण
करते हैं तो भगवान विष्णु की कृपा से पितरों को मोक्ष
की प्राप्ति होती है।

• इससे पितर भी आपसे प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं
और आपके संकट दूर हो जाते हैं ।

पितरों को जल देने की विधि:

• नदी में स्नान करने के बाद पितरों को जौ, काला तिल
और एक लाल फूल डालकर दक्षिण दिशा की ओर मुंह
करके खास मंत्र बोलते हुए जल अर्पित करना होता है।

• सर्वप्रथम अपने पास शुद्ध जल, बैठने का आसन (कुशा
का हो), बड़ी थाली या ताम्रण ( ताम्बे की प्लेट), कच्चा
दूध, गुलाब के फूल, फूल-माला, कुशा, सुपारी, जौ,
काली तिल, जनेऊ आदि पास में रखे। आसन पर
बैठकर तीन बार आचमन करें। ॐ केशवाय नमः, ॐ
माधवाय नम:, ॐ गोविन्दाय नम: बोलें।

• आचमन के बाद हाथ धोकर अपने ऊपर जल छिड़के
अर्थात् पवित्र होवें, फिर गायत्री मंत्र से शिखा बांधकर
तिलक लगाकर कुशे की पवित्री (अंगूठी बनाकर )
अनामिका अंगुली में पहन कर हाथ में जल, सुपारी,
सिक्का, फूल लेकर निम्न संकल्प लें।

• अपना नाम एवं गोत्र उच्चारण करें फिर बोले

अथ्श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफलप्राप्त्यर्थ देवर्षिमनुष्यपितृतर्पणम करिष्ये।।

इसके बाद थाली में जल, कच्चा दूध, गुलाब की पंखुड़ी
डाले, फिर हाथ में चावल लेकर देवता एवं ऋषियों का
आह्वान करें। स्वयं पूर्व मुख करके बैठें, जनेऊ को रखें।
कुशा के अग्रभाग को पूर्व की ओर रखें, देवतीर्थ से
अर्थात् दाएं हाथ की अंगुलियों के अग्रभाग से तर्पण दें,
इसी प्रकार ऋषियों को तर्पण दें।

• अब उत्तर मुख करके जनेऊ को कंठी करके (माला
जैसी) पहने एवं पालकी लगाकर बैठे एवं दोनों हथेलियों
के बीच से जल गिराकर दिव्य मनुष्य को तर्पण दें।
अंगुलियों से देवता और अंगूठे से पितरों को जल अर्पण
किया जाता है।

●इसके बाद दक्षिण मुख बैठकर, जनेऊ को दाहिने कंधे
पर रखकर बाएं हाथ के नीचे ले जाए, थाली में काली
तिल छोड़े फिर काली तिल हाथ में लेकर अपने पितरों
का आह्वान करें-

ॐ आगच्छन्तु में पितर इमम ग्रहन्तु जलान्जलिम |

फिर पितृ तीर्थ से अर्थात् अंगूठे और तर्जनी के मध्य भाग से तर्पण दें।

तर्पण करते वक्त अपने गोत्र का नाम लेकर बोलें,

गोत्रे अस्मत्पितामह (पिता का नाम) वसुरूपत् तृप्यतमिदं
तिलोदकम गंगा जलं वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा
नमः, तस्मै स्वधा नमः ।

इस मंत्र से स्वर्गीय पिता, पितामह (पिता के पिता अर्थात् बाबा या दादा), प्रपितामह (बाबा या दादा के पिता) और स्वर्गीय मातामह (नाना), प्रमातामह (नाना के पिता) और वृद्ध प्रमातामह (नाना के बाबा या दादा) आदि के नामों का उच्चारण कर उनके प्रति जलाञ्जलि देनी होती है। फिर अपनी ‘स्वर्गीया माता, पितामही (दादी) और प्रपितामही (दादा की माता) को, आगे अपनी स्वर्गीया मातामही (नानी), प्रमातामही (नाना की माता) और वृद्ध-प्रमातामही (नाना की दादी) का स्मरण कर उन्हें 3- 3 बार जल से तृप्त करना होता है। इस मंत्र को पढ़कर जलांजलि पूर्व दिशा में 16 बार, उत्तर दिशा में 7 बार और दक्षिण दिशा में 14 बार दें।

• जिनके नाम याद नहीं हो, तो रूद्र, विष्णु एवं ब्रह्मा जी
का नाम उच्चारण कर लें। भगवान सूर्य को जल चढ़ाए।
फिर कंडे पर गुड़-घी की धूप दें, धूप के बाद पांच भोग
निकालें जो पंचबली कहलाती है।

इसके बाद हाथ में जल लेकर
ॐ विष्णवे नमः ॐ विष्णवे नम: ॐ विष्णवे नम:
बोलकर यह कर्म भगवान विष्णु जी के चरणों में छोड़ दें। इस कर्म से आपके पितृ बहुत प्रसन्न होंगे एवं मनोरथ पूर्ण करेंगे।


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किसने शुरू किया था पितृपक्ष-परंपरा का आरंभ, दानवीर कर्ण से क्या है इसका कनेक्शन https://www.mokshbhumi.com/2024/9817/ https://www.mokshbhumi.com/2024/9817/#respond Tue, 17 Sep 2024 15:23:50 +0000 https://www.mokshbhumi.com/?p=9817 – 16 दिनों का होता है श्राद्ध पक्ष – भाद्रपक्ष पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक भाद्रपद मास की पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक मनाए जानेवाले सोलह […]

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– 16 दिनों का होता है श्राद्ध पक्ष
– भाद्रपक्ष पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक

भाद्रपद मास की पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक मनाए जानेवाले सोलह दिन के ‘पितृपक्ष’ में किए जानेवाले श्राद्ध हमारी सनातन परंपरा का हिस्सा हैं। श्राद्ध का विस्तार से उल्लेख द्वापर युग में महाभारत काल में मिलता है। महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह की युधिष्ठिर के साथ श्राद्ध के संबंध में विस्तार से चर्चा है। महाभारत काल में सबसे पहले श्राद्ध का उपदेश अत्रि मुनि ने महर्षि निमि को दिया था। इसे सुनने के पश्चात ऋषि निमि ने अपने पुत्र का श्राद्ध किया। इसके अलावा महाभारत के युद्ध के बाद श्रीकृष्ण के कहने पर पांडव अपने मृतक परिजनों का श्राद्ध सोमवती अमावस्या के दिन करना चाहते थे, जिससे उन्हें मुक्ति मिल सके। लेकिन उनके जीवनकाल में सोमवती अमावस्या कभी नहीं आई। इससे क्रोधित होकर युधिष्ठिर ने सोमवती अमावस्या को श्राप दिया कि आगे से वर्ष में एक बार सोमवती अमावस्या अवश्य आएगी। यही नहीं, इससे पूर्व त्रेता युग में सीता द्वारा दशरथ के पिंडदान की कथा भी सर्वविदित है।

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साभार – अश्वनी कुमार


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हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार मृत व्यक्ति के श्राद्धविधि प्रतिवर्ष करने के लिए कहा गया है । कुछ निरीश्‍वरवादी इसे विरोध करते हैं । श्राद्ध-विधि न करने पर क्या हो सकता है और जीवन में साधना का महत्त्व इस लेख द्वारा समझ लेते है ।

१. शास्त्रों के अनुसार विशिष्ट दिन विशिष्ट श्राद्धविधि करना आवश्यक होना
आजकल वर्षश्राद्ध के स्थान पर बारहवें दिन ही सपिंडीकरण श्राद्ध करते हैं । यह उचित नहीं है । बारहवें दिन सपिंडीकरण श्राद्ध करना पर्याप्त न होने के कारण :

अ. सामान्य जीव द्वारा की जानेवाली प्रत्येक विधि में यदि भाव न हो, तो फलप्राप्ति मात्र 10 प्रतिशत ही होती है ।
आ. लिंगदेह, साधना न करते हों, तो उनके सर्व ओर व्याप्त वासनात्मक कोषों द्वारा प्रक्षेपित रज-तमात्मक तरंगों की मात्रा उनकी आसक्ति के अनुपात में परिवर्तित होती रहती है । इसके परिणामस्वरूप प्रत्येक वर्ष श्राद्ध कर साधना न करनेवाले जीव को आगे जाने के लिए बल उत्पन्न करवाना, यह पितृऋण चुकानेवाले जीव का प्राथमिक कर्तव्य है ।

२. शास्त्रों के अनुसार श्राद्धविधि न करने से संभावित हानि

अ. लिंगदेह एक ही स्थिर कक्षा में अनेक वर्षों तक अटकी रहती है ।

आ. अटकी हुई लिंगदेह मांत्रिकों के वश में फंसकर उनकी आज्ञानुसार परिवार के सदस्यों को कष्ट दे सकती है । लिंगदेह आगे न जाकर एक नियत कक्षा में अटके रहने से उनके कोष से प्रक्षेपित परिजनों से संबंधित आसक्तिदर्शक लेन-देन युक्त तरंगों के प्रादुर्भाव में परिवार के सदस्य होते हैं । इसके कारण उन्हें कष्ट होने की आशंका अधिक होती है ।

३. सनातन धर्मानुसार मृत व्यक्ति का बारहवें दिन श्राद्ध करते हैं । आर्य समाज में चौथे दिन ही श्राद्ध करते हैं और उसके उपरांत श्राद्ध नहीं करते । यह कहां तक उचित है ?

चौथे दिन श्राद्ध की फलप्राप्ति शून्य प्रतिशत होती है; क्योंकि चौथे दिन मृतदेह पर उसके जीवित होने का संस्कार दृढ रहता है । इसलिए उसके सर्व ओर विद्यमान वासनात्मक कोष 100 प्रतिशत कार्यरत अवस्था में रहता है । ऐसे में श्राद्धादि विधिकर्म करने पर, उससे निर्मित मंत्रशक्ति की तरंगें ग्रहण करने में लिंगदेह पूर्णतः असमर्थ अवस्था में, अर्थात कर्मविधि के आकलन और भान के परे होती है । इसलिए उसके लिए श्राद्ध कर कोई लाभ नहीं होता ।

इसके विपरीत 12वें दिन लिंगदेह द्वारा पृथ्वी की वातावरण-कक्षा भेदने पर उसकी पृथ्वीतत्त्व से संलग्नता न्यून होकर उसका जडत्व भी न्यून होता है और उसके सर्व ओर विद्यमान कोषों की संवेदन क्षमता बढती है। इस कारण श्राद्धादि विधिकर्म के स्पंदन ग्रहण करने में वह अग्रसर होने के कारण उस काल में विधि करने से वह अधिक फलदायी प्रमाणित होती है ।

हिन्दू धर्म ने प्रत्येक विषय का कितना गहन विचार किया है, यह ज्ञात होता है । प्रत्येक वर्ष श्राद्ध कर उन विशिष्ट लिंगदेहों के सर्व ओर विद्यमान वासनात्मक कोषों का आवरण न्यून करना, उन्हें हलकापन प्राप्त कराना और मंत्रशक्ति की ऊर्जा से उन्हें गति देना, यह पितृऋण चुकाने का प्रमुख साधन है । सभी लिंगदेह साधना नहीं करतीं, इसलिए श्राद्धादि कर्म कर उन्हें बाह्यऊर्जा के बल पर आगे भेजना पडता है; इसी कारण प्रतिवर्ष श्राद्ध करना महत्त्वपूर्ण होता है । नामसाधना करनेवाला जीव स्वयं ही सात्त्विक ऊर्जा के बल पर उत्तरोत्तर गति प्राप्त कर आगे बढता रहता है; इसलिए साधना करने का अनन्य महत्त्व है ।

– प्राची जुवेकर


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Pitru Paksha 2024 : कब से शुरू हो रहा है पितृ पक्ष ? जानिए प्रमुख तिथियां https://www.mokshbhumi.com/2024/9808/ https://www.mokshbhumi.com/2024/9808/#respond Tue, 17 Sep 2024 08:23:09 +0000 https://www.mokshbhumi.com/?p=9808 पितरों के कार्य वैसे तो वर्षभर किए जाते हैं किंतु उनके लिए दिन विशेष श्राद्धपक्ष कहलाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्विन अमावस्या तक सोलह दिन का समय पितृपक्ष, श्राद्धपक्ष […]

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पितरों के कार्य वैसे तो वर्षभर किए जाते हैं किंतु उनके लिए दिन विशेष श्राद्धपक्ष कहलाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्विन अमावस्या तक सोलह दिन का समय पितृपक्ष, श्राद्धपक्ष या महालया कहलाता है।

श्राद्धपक्ष में पितृ अपने परिजनों से जल, भोजन आदि ग्रहण करने धरती पर आते हैं। इस दौरान उनकी प्रसन्नता के लिए श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान आदि कर्म किए जाते हैं।

इस बार पितृपक्ष 17 सितंबर यानी आज से प्रारंभ होकर 2 अक्टूबर 2024 तक रहेंगे। इस दौरान पितरों के निमित्त दान, ब्राह्मण भोजन, पशु-पक्षियों की सेवा आदि कर्म किए जाने चाहिए। श्राद्धपक्ष में पितरों का श्राद्ध उसी तिथि ( अंग्रेजी तारीख नहीं ) पर किया जाता है जिस तिथि को उनकी मृत्यु हुई होगी।

श्राद्धपक्ष के अंतिम दिन सर्वपितृ अमावस्या

जिन पितरों की मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं है और अज्ञात पितरों की शांति के लिए श्राद्धपक्ष के अंतिम दिन सर्वपितृ अमावस्या पर श्राद्ध किया जाता है। जिन पितरों की मृत्यु तिथि पूर्णिमा होती है उनका श्राद्ध भाद्रपद पूर्णिमा के दिन किया जाता है।

श्राद्धपक्ष संवत 2081 (2024) की तिथियां

17 सितंबर : प्रौष्ठपदी पूर्णिमा श्राद्ध

18 सितंबर : प्रतिपदा श्राद्ध

19 सितंबर : द्वितीया श्राद्ध

20 सितंबर : तृतीया श्राद्ध

21 सितंबर : चतुर्थी श्राद्ध, भरणी श्राद्ध

22 सितंबर : पंचमी श्राद्ध

23 सितंबर : षष्ठी श्राद्ध, दोप 1:51 से सप्तमी श्राद्ध

24 सितंबर : अष्टमी श्राद्ध

25 सितंबर : नवमी श्राद्ध, सौभाग्यवती का श्राद्ध

26 सितंबर : दशमी श्राद्ध

27 सितंबर : एकादशी श्राद्ध

28 सितंबर : एकादशी का एकोदिष्ट श्राद्ध

29 सितंबर : द्वादशी श्राद्ध, सन्यासियों का श्राद्ध, मघा श्राद्ध

30 सितंबर : त्रयोदशी श्राद्ध

1 अक्टूबर : चतुर्दशी श्राद्ध

2 अक्टूबर : सर्वपितृ अमावस्या श्राद्ध

श्रेष्ठ काल पितृ पक्ष अनुष्ठान का

कुतुप मुहूर्त- सुबह 11 बजकर 50 मिनट से लेकर दोपहर 12 बजकर 39 मिनट तक

रौहिण मुहूर्त- दोपहर 12 बजकर 39 मिनट से लेकर दोपहर 1 बजकर 28 मिनट तक

अपराह्न मुहूर्त- दोपहर 1 बजकर 28 मिनट से 3 बजकर 55 मिनट तक

खास बातें

– इस अवधि में दोनों वेला में स्नान करके पितरों को याद करना चाहिए।

– कुतुप वेला में पितरों को तर्पण दें और इसी वेला में तर्पण का विशेष महत्व भी होता है।

– देवताओं को अक्षत और ऋषियों को जौ और पितरों को कुश और काले तिल से जल प्रदान करें ।

– जो कोई भी पितृ पक्ष का पालन करता है उसे इस अवधि में सात्विक भोजन ग्रहण करना चाहिए।

– पितरों को हल्कि सुगंध वाले सफेद फूल ही अर्पित करें। तीखी सुगंध वाले फूल वर्जित हैं।

– पूर्व में देवता उत्तर में ऋषि और दक्षिण दिशा की ओर मुख करके पितरों का तर्पण करें।

– कर्ज लेकर या दबाव में कभी भी श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए।

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Ganesh Sund Disha: गणेश मूर्ति लेने से पहले जानिए किस तरफ होनी चाहिए उनकी सूंड़, क्या होता है इसका महत्व https://www.mokshbhumi.com/2024/9801/ https://www.mokshbhumi.com/2024/9801/#respond Sat, 07 Sep 2024 08:41:02 +0000 https://www.mokshbhumi.com/?p=9801 गणेश की मूर्ति घर पर लाने से पहले देख लें उनकी सूंड़ किस तरफ है, किस तरफ की सूंड का क्या महत्व है। जिस तरह से गणेश की मूर्ति स्थापना […]

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गणेश की मूर्ति घर पर लाने से पहले देख लें उनकी सूंड़ किस तरफ है, किस तरफ की सूंड का क्या महत्व है।

जिस तरह से गणेश की मूर्ति स्थापना करने से पहले कई बातों का ध्यान रखना होता है जैसे मूर्ति कैसी होनी चाहिए, ठीक उसी तरह से गणेश की सूंड़ किस तरफ होने से वह शुभ होती है यह भी जरूरी है.आपने कभी ध्यान दिया है कि भगवान गणेश की तस्वीरों और मूर्तियों में उनकी सूंड़ दाई या कुछ में बाई ओर होती है. सीधी सूंड वाले गणेश कम होते हैं.

दाईं दिशा में सूंड के मायने

दाईं दिशा में सूंड़ वाले मूर्ति को मंदिरों में स्थापित किया जाता है. आमतौर पर दाएं हाथ की सूंड़ वाले गणेशजी को तंत्र विधि से पूजा जाता है. साथ ही दक्षिण दिशा में यमलोक है, जहां पाप-पुण्य का हिसाब रखा जाता है. इसलिए इसे अप्रिय माना जाता है.

किस तरफ होनी चाहिए सूंड

कुछ मूर्तियों में गणेशजी की सूंड़ को बाई ओर दिखाया जाता है और कुछ में दाई ओर. गणेश की अधिकतर मूर्तियां सीधी या उत्तर की ओर सूंड़ वाली होती हैं. मान्यता है कि गणेश की मूर्ति जब भी दक्षिण की ओर मुड़ी हुई बनाई जाती है तो वह टूट जाती है. कहा जाता है कि यदि संयोगवश आपको दक्षिणावर्ती मूर्त मिल जाए और उसकी विधिवत उपासना की जाए तो अभिष्ट फल मिलते हैं. गणपति जी की बाईं सूंड़ में चंद्रमा का और दाईं में सूर्य का प्रभाव माना गया है

गणेश की सीधी सूंड़ तीन दिशाओं से दिखती है, जब सूंड़ दाईं ओर घूमी होती है तो इसे पिंगला स्वर और सूर्य से प्रभावित माना गया है. ऐसी प्रतिमा का पूजन विघ्न-विनाश, शत्रु पराजय, विजय प्राप्ति, उग्र तथा शक्ति प्रदर्शन जैसे कार्यों के लिए फलदायी माना जाता है. वहीं बाईं ओर मुड़ी सूंड वाली मूर्त को इड़ा नाड़ी व चंद्र प्रभावित माना गया है. ऐसी मूर्त की पूजा स्थायी कार्यों के लिए की जाती है. जैसे शिक्षा, धन प्राप्ति, व्यवसाय, उन्नति, संतान सुख, विवाह, सृजन कार्य और पारिवारिक खुशहाली.

सीधी सूंड़ वाली मूर्त का सुषुम्रा स्वर माना जाता है और इनकी आराधना रिद्धि-सिद्धि, कुण्डलिनी जागरण, मोक्ष, समाधि आदि के लिए सर्वोत्तम मानी गई है. संत समाज ऐसी मूर्त की ही आराधना करता है, सिद्धि विनायक मंदिर में दाईं ओर सूंड़ वाली मूर्त है इसीलिए इस मंदिर की आस्था और आय आज शिखर पर है

जिस मूर्ति में सूंड़ दाईं ओर हो उसे दक्षिण मूर्ति कहते हैं. दक्षिण दिशा यमलोक की ओर ले जाने वाली दाईं बाजू सूर्य की नाड़ी की है,जो यमलोक की दिशा का सामना कर सकता है, वह शक्तिशाली होता है. इन दोनों अर्थों से दाईं सूंड़ वाले गणपति को जागृत कहते हैं.

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गणेश चतुर्थी विशेष : आखिर क्यों आज चंद्रमा दर्शन की होती है मनाही, क्या है इससे कलंक का कनेक्शन, पढ़े पुरी कथा https://www.mokshbhumi.com/2024/9796/ https://www.mokshbhumi.com/2024/9796/#respond Sat, 07 Sep 2024 03:23:36 +0000 https://www.mokshbhumi.com/?p=9796 चतुर्थी तिथि शुरू होने से लेकर खत्म होने तक चन्द्रमा का दर्शन नहीं करना चाहिए। यदि भूल से गणेश चतुर्थी के दिन चन्द्रमा के दर्शन हो जाएं तो मिथ्या दोष […]

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चतुर्थी तिथि शुरू होने से लेकर खत्म होने तक चन्द्रमा का दर्शन नहीं करना चाहिए। यदि भूल से गणेश चतुर्थी के दिन चन्द्रमा के दर्शन हो जाएं तो मिथ्या दोष से बचाव के लिए निम्नलिखित मंत्र का जाप करना चाहिए तथा दी गई कथा का श्रवण करना चाहिए …

चतुर्थी का चंद्र दिख जाये तो पढ़ें यह मंत्र और कथा

सिंह: प्रसेनमवधीत्सिंहो जाम्बवता हत:।
सुकुमारक मारोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकर:।।

एक बार नंदकिशोर ने सनतकुमारों से कहा कि चौथ की चंद्रमा के दर्शन करने से श्रीकृष्ण पर जो लांछन लगा था, वह सिद्धिविनायक व्रत करने से ही दूर हुआ था। ऐसा सुनकर सनतकुमारों को आश्चर्य हुआ।

उन्होंने पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण को कलंक लगने की कथा पूछी तो नंदकिशोर ने बताया- एक बार जरासंध के भय से श्रीकृष्ण समुद्र के मध्य नगरी बसाकर रहने लगे। इसी नगरी का नाम आजकल द्वारिकापुरी है। द्वारिकापुरी में निवास करने वाले सत्राजित यादव ने सूर्यनारायण की आराधना की। तब भगवान सूर्य ने उसे नित्य आठ भार सोना देने वाली स्यमन्तक नामक मणि अपने गले से उतारकर दे दी।

मणि पाकर सत्राजित यादव जब समाज में गया तो श्रीकृष्ण ने उस मणि को प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की। सत्राजित ने वह मणि श्रीकृष्ण को न देकर अपने भाई प्रसेनजित को दे दी। एक दिन प्रसेनजित घोड़े पर चढ़कर शिकार के लिए गया। वहां एक शेर ने उसे मार डाला और मणि ले ली। रीछों का राजा जामवन्त उस सिंह को मारकर मणि लेकर गुफा में चला गया।

जब प्रसेनजित कई दिनों तक शिकार से न लौटा तो सत्राजित को बड़ा दुख हुआ। उसने सोचा, श्रीकृष्ण ने ही मणि प्राप्त करने के लिए उसका वध कर दिया होगा। अतः बिना किसी प्रकार की जानकारी जुटाए उसने प्रचार कर दिया कि श्रीकृष्ण ने प्रसेनजित को मारकर स्यमन्तक मणि छीन ली है।

इस लोक-निंदा के निवारण के लिए श्रीकृष्ण बहुत से लोगों के साथ प्रसेनजित को ढूंढने वन में गए। वहां पर प्रसेनजित को शेर द्वारा मार डालना और शेर को रीछ द्वारा मारने के चिह्न उन्हें मिल गए।

रीछ के पैरों की खोज करते-करते वे जामवन्त की गुफा पर पहुंचे और गुफा के भीतर चले गए। वहां उन्होंने देखा कि जामवन्त की पुत्री उस मणि से खेल रही है। श्रीकृष्ण को देखते ही जामवन्त युद्ध के लिए तैयार हो गया।

युद्ध छिड़ गया। गुफा के बाहर श्रीकृष्ण के साथियों ने उनकी सात दिन तक प्रतीक्षा की। फिर वे लोग उन्हें मर गया जानकर पश्चाताप करते हुए द्वारिकापुरी लौट गए। इधर इक्कीस दिन तक लगातार युद्ध करने पर भी जामवन्त श्रीकृष्ण को पराजित न कर सका। तब उसने सोचा, कहीं यह वह अवतार तो नहीं जिसके लिए मुझे रामचंद्रजी का वरदान मिला था। यह पुष्टि होने पर उसने अपनी कन्या का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और मणि दहेज में दे दी।

श्रीकृष्ण जब मणि लेकर वापस आए तो सत्राजित अपने किए पर बहुत लज्जित हुआ। इस लज्जा से मुक्त होने के लिए उसने भी अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया।

कुछ समय के बाद श्रीकृष्ण किसी काम से इंद्रप्रस्थ चले गए। तब अक्रूर तथा ऋतु वर्मा की राय से शतधन्वा यादव ने सत्राजित को मारकर मणि अपने कब्जे में ले ली। सत्राजित की मौत का समाचार जब श्रीकृष्ण को मिला तो वे तत्काल द्वारिका पहुंचे। वे शतधन्वा को मारकर मणि छीनने को तैयार हो गए।

इस कार्य में सहायता के लिए बलराम भी तैयार थे। यह जानकर शतधन्वा ने मणि अक्रूर को दे दी और स्वयं भाग निकला। श्रीकृष्ण ने उसका पीछा करके उसे मार तो डाला, पर मणि उन्हें नहीं मिल पाई।

बलरामजी भी वहां पहुंचे। श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि मणि इसके पास नहीं है। बलरामजी को विश्वास न हुआ। वे अप्रसन्न होकर विदर्भ चले गए। श्रीकृष्ण के द्वारिका लौटने पर लोगों ने उनका भारी अपमान किया। तत्काल यह समाचार फैल गया कि स्यमन्तक मणि के लोभ में श्रीकृष्ण ने अपने भाई को भी त्याग दिया।

श्रीकृष्ण इस अकारण प्राप्त अपमान के शोक में डूबे थे कि सहसा वहां नारदजी आ गए। उन्होंने श्रीकृष्णजी को बताया- आपने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के चंद्रमा का दर्शन किया था। इसी कारण आपको इस तरह लांछित होना पड़ा है।

श्रीकृष्ण ने पूछा- चौथ के चंद्रमा को ऐसा क्या हो गया है जिसके कारण उसके दर्शनमात्र से मनुष्य कलंकित होता है? तब नारदजी बोले- एक बार ब्रह्माजी ने चतुर्थी के दिन गणेशजी का व्रत किया था। गणेशजी ने प्रकट होकर वर मांगने को कहा तो उन्होंने मांगा कि मुझे सृष्टि की रचना करने का मोह न हो।

गणेशजी ज्यों ही ‘तथास्तु’ कहकर चलने लगे, उनके विचित्र व्यक्तित्व को देखकर चंद्रमा ने उपहास किया। इस पर गणेशजी ने रुष्ट होकर चंद्रमा को शाप दिया कि आज से कोई तुम्हारा मुख नहीं देखना चाहेगा।

शाप देकर गणेशजी अपने लोक चले गए और चंद्रमा मानसरोवर की कुमुदिनियों में जा छिपा। चंद्रमा के बिना प्राणियों को बड़ा कष्ट हुआ। उनके कष्ट को देखकर ब्रह्माजी की आज्ञा से सारे देवताओं के व्रत से प्रसन्न होकर गणेशजी ने वरदान दिया कि अब चंद्रमा शाप से मुक्त तो हो जाएगा, पर भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को जो भी चंद्रमा के दर्शन करेगा, उसे चोरी आदि का झूठा लांछन जरूर लगेगा। किंतु जो मनुष्य प्रत्येक द्वितीया को दर्शन करता रहेगा, वह इस लांछन से बच जाएगा। इस चतुर्थी को सिद्धिविनायक व्रत करने से सारे दोष छूट जाएंगे।

यह सुनकर देवता अपने-अपने स्थान को चले गए। इस प्रकार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चंद्रमा का दर्शन करने से आपको यह कलंक लगा है। तब श्रीकृष्ण ने कलंक से मुक्त होने के लिए यही व्रत किया था।

कुरुक्षेत्र के युद्ध में युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा- भगवन्! मनुष्य की मनोकामना सिद्धि का कौन-सा उपाय है? किस प्रकार मनुष्य धन, पुत्र, सौभाग्य तथा विजय प्राप्त कर सकता है?

यह सुनकर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- यदि तुम पार्वती पुत्र श्री गणेश का विधिपूर्वक पूजन करो तो निश्चय ही तुम्हें सब कुछ प्राप्त हो जाएगा। तब श्रीकृष्ण की आज्ञा से ही युधिष्ठिरजी ने गणेश चतुर्थी का व्रत करके महाभारत का युद्ध जीता था।

गणेश जी के नाराज होने की कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार भगवान गणेश आसन पर विराजमान होकर मनपसंद भोग खा रहे थे, तभी चंद्रदेव वहां से गुजर रहे थे। भगवान गणेश को भोग खाते देख चंद्रदेव हंसने लगे और सूंड व पेट का मजाक भी उड़ाया। चंद्रदेव के इस व्यवहार से गुस्सा होकर गणेशजी ने शाप देते हुए कहा कि तुमको अपने रुप पर बहुत घमंड है इसलिए आज से तुम अपना रूप खो दोगे और तुम्हारी कलाएं भी नष्ट हो जाएंगी। जो व्यक्ति तुमको देखेगा, वह भी कलंकित हो जाएगा। जिस दिन यह घटना हुई थी, वह भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि थी।

चंद्रदेव को अपनी गलती का अहसास हुआ तब वह देवी देवताओं के साथ मिलकर भगवान गणेश की पूजा अर्चना करने लगे। भगवान गणेश ने प्रसन्न होकर वरदान मांगने को कहा। सभी देवी देवताओं ने गणेश भगवान से प्रार्थना की कि वह अपना शाप वापस ले लें। तब भगवान गणेश ने कहा कि शाप तो वापस नहीं लिया जा सकता है लेकिन इसको सीमित किया जा सकता है। भगवान गणेश ने चंद्रदेव को शाप कम करते हुए कहा कि महीने के 15 दिन चंद्रदेव की कलाएं बढ़ेंगी और 15 दिन क्षणिक होते जाएंगे। कलंकित होने की वजह से चतुर्थी तिथि के दिन चंद्रमा के दर्शन करना वर्जित होगा।


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Hartalika Teej : हरतालिका तीज पर भूलकर भी ना करें ये काम वरना होगा बड़ा नुकसान https://www.mokshbhumi.com/2024/9785/ https://www.mokshbhumi.com/2024/9785/#respond Thu, 05 Sep 2024 15:10:08 +0000 https://www.mokshbhumi.com/?p=9785 सुहाग की लंबी उम्र के लिए रखे जाना वाला हरतालिका तीज का पर्व 6 सितंबर को है। इस दिन महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए निर्जला व्रत रखती […]

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सुहाग की लंबी उम्र के लिए रखे जाना वाला हरतालिका तीज का पर्व 6 सितंबर को है। इस दिन महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए निर्जला व्रत रखती हैं। ये व्रत बेहद ही कठिन माना जाता है। जो कोई भी इस उपवास को सच्चे मन से करता है उसकी हर मनोकामना पूरी होती है। ये उपवास अविवाहित कन्याएं भी सुयोग्य जीवनसाथी के लिए रखती हैं।

लेकिन इस व्रत के कुछ नियम है, जिनका पालन करना बहुत जरूरी है। जो कोई इसका पालन नहीं करता है उसे फिर इस व्रत का फल नहीं मिलता है।

हरतालिका तीज में क्या करें

इस दिन निर्जला व्रत करें।

व्रत के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करना और साफ-सुथरे वस्त्र पहनना शुभ माना जाता है।

व्रत के दिन महिलाएं सोलह श्रृंगार करके शिवशंभू की पूजा करें।

भगवान शिव और मां पार्वती की विशेष पूजा की जाती है।

पारंपरिक तरीके से शिवलिंग का जलाभिषेक करें और मां पार्वती को 16 श्रृंगार अर्पित करें।

हरतालिका तीज की व्रत कथा का श्रवण करना अत्यंत शुभ माना जाता है।

इस दिन गरीबों और जरूरतमंदों को दान देने से पुण्य की प्राप्ति होती है।

हरतालिका तीज में क्या न करें

हरतालिका तीज का व्रत निर्जला होता है, इसलिए इस दिन जल का सेवन नहीं किया जाता।

व्रत के दौरान मन को शांत और सकारात्मक बनाए रखना चाहिए। नकारात्मक सोच, गुस्सा और ईर्ष्या से दूर रहें।

इस पवित्र दिन पर झूठ बोलना, छल-कपट करना वर्जित है।

व्रत के दौरान तामसिक भोजन (प्याज, लहसुन, मांसाहार) का सेवन ना करें।

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Hartalika Teej : जानिए क्या होता है हरितालिका तीज के दिन, पार्वती ने शिव के पाने के लिए किया था हरितालिका तीज व्रत https://www.mokshbhumi.com/2024/9790/ https://www.mokshbhumi.com/2024/9790/#respond Thu, 05 Sep 2024 14:50:56 +0000 https://www.mokshbhumi.com/?p=9790 सुहागिन महिलाओं के बीच पति की लंबी आयु, स्वयं और परिवार की सुख-समृद्धि के लिए किया जाने वाला हरितालिका तीज व्रत 6 सितंबर 2024 शुक्रवार को मनाया जाएगा। इस बार […]

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सुहागिन महिलाओं के बीच पति की लंबी आयु, स्वयं और परिवार की सुख-समृद्धि के लिए किया जाने वाला हरितालिका तीज व्रत 6 सितंबर 2024 शुक्रवार को मनाया जाएगा। इस बार शुभदायक हस्त-चित्रा नक्षत्र और शुक्ल योग बन रहा है। इसके साथ ही रवियोग भी बनेगा।

6 सितंबर को हस्त नक्षत्र प्रात: 9:24 बजे तक रहेगा उसके बाद चित्रा नक्षत्र लग जाएगा। शुक्ल योग सूर्योदय पूर्व से प्रारंभ होकर रात्रि 10:14 बजे तक रहेगा। रवियोग प्रात: 9:25 से प्रारंभ होकर रात्रिपर्यंत रहेगा।

क्या होता है हरितालिका तीज के दिन

हरितालिका तीज का व्रत सुहागिन महिलाएं अपने पति की लंबी आयु और उत्तम स्वास्थ्य की कामना से करती हैं। इसमें स्वयं सहित संपूर्ण परिवार के सुख-समृद्धि की कामना समाहित होती है। यह व्रत कुंवारी कन्याएं भी उत्तम वर प्राप्ति की कामना से करती हैं। यह व्रत पूर्णत: निराहार रहते हुए किया जाता है किंतु किसी महिला की क्षमता न हो तो वह फलाहार कर सकती हैं।

शिव पार्वती की रेत की मूर्ति बनाकर पूजन करें

इस दिन शिव पार्वती की बालू रेत की मूर्ति बनाकर पूजन किया जाता है। पत्तों से सुंदर मंडप सजाकर उसमें शिव पार्वती की मूर्तियां विराजित कर पांच बार पूजा की जाती है। हरितालिका तीज व्रत की कथा सुनी या पढ़ी जाती है। महिलाएं रातभर भजन करते हुए जगराता करती हैं। अगले दिन प्रात: 5 बजे पूजन का समापन कर विसर्जन किया जाता है।

पार्वती ने शिव के पाने के लिए किया था व्रत

पुराण कथाओं के अनुसार हरितालिका तीज के दिन पार्वती ने शिव को पति के रूप में पाने के लिए यह व्रत सखियों सहित किया था। व्रत के प्रभाव से उन्हें पति के रूप में शिवजी प्राप्त हुए। तभी से इस व्रत को करने की मान्यता है।


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Raja bhartuhari : राजा भर्तृहरि जो अपनी सुंदर पत्नी से आहत होकर बने थे बैरागी https://www.mokshbhumi.com/2024/9784/ https://www.mokshbhumi.com/2024/9784/#respond Thu, 29 Aug 2024 15:43:08 +0000 https://www.mokshbhumi.com/?p=9784 प्राचीन उज्जैन में बड़े प्रतापी राजा हुए राजा भर्तृहरि, जो राजा विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। भर्तृहरि अपनी तीसरी पत्नी पिंगला पर आसक्त थे और वे उस पर अत्यंत विश्वास […]

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प्राचीन उज्जैन में बड़े प्रतापी राजा हुए राजा भर्तृहरि, जो राजा विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। भर्तृहरि अपनी तीसरी पत्नी पिंगला पर आसक्त थे और वे उस पर अत्यंत विश्वास करते थे। आलम यह था कि राजा पत्नी मोह में अपने कर्तव्यों को भी भूल गए थे।

उस समय उज्जैन में एक तपस्वी गुरु गोरखनाथ का आगमन हुआ। गोरखनाथ राजा के दरबार में पहुंचे। भर्तृहरि ने गोरखनाथ का उचित आदर-सत्कार किया। इससे तपस्वी गुरु अति प्रसन्न हुए। प्रसन्न होकर गोरखनाथ ने राजा एक फल दिया और कहा कि यह खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे, कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सदैव सुंदरता बनी रहेगी।

यह चमत्कारी फल देकर गोरखनाथ वहां से चले गए। राजा ने फल लेकर सोचा कि उन्हें जवानी और सुंदरता की क्या आवश्यकता है। चूंकि राजा अपनी तीसरी पत्नी पर अत्यधिक मोहित थे, अत: उन्होंने सोचा कि यदि यह फल पिंगला खा लेगी तो वह सदैव सुंदर और जवान बनी रहेगी। यह सोचकर राजा ने पिंगला को वह फल दे दिया।

रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि उसके राज्य के कोतवाल पर मोहित थी। यह बात राजा नहीं जानते थे। जब राजा ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया तो रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा। रानी ने यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया।

वह कोतवाल एक वैश्या से प्रेम करता था और उसने चमत्कारी फल उसे दे दिया। ताकि वैश्या सदैव जवान और सुंदर बनी रहे। वैश्या ने फल पाकर सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा। नर्क समान जीवन से मुक्ति नहीं मिलेगी।

इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है। राजा हमेशा जवान रहेंगे तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देता रहेगा। यह सोचकर उसने चमत्कारी फल राजा को दे दिया। राजा वह फल देखकर हतप्रभ रह गए।

राजा ने वैश्या से पूछा कि यह फल उसे कहां से प्राप्त हुआ। वैश्या ने बताया कि यह फल उसे कोतवाल ने दिया है। भर्तृहरि ने तुरंत कोतवाल को बुलवा लिया। सख्ती से पूछने पर कोतवाल ने बताया कि यह फल उसे रानी पिंगला ने दिया है।

जब भरथरी को पूरी सच्चाई मालूम हुई तो वह समझ गए कि रानी पिंगला उसे धोखा दे रही है। पत्नी के धोखे से भर्तृहरि के मन में वैराग्य जाग गया और वे अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में आ गए। उस गुफा में भर्तृहरि ने 12 वर्षों तक तपस्या की थी।

उज्जैन में आज भी राजा भर्तृहरि की गुफा दर्शनीय स्थल के रूप में स्थित है। राजा भर्तृहरि ने वैराग्य पर वैराग्य शतक की रचना की, जो कि काफी प्रसिद्ध है। राजा भर्तृहरि ने श्रृंगार शतक और नीति शतक की भी रचना की। यह तीनों ही शतक आज भी उपलब्ध हैं और पढ़ने योग्य है।

भृतहरि की समाधि

भृतहरि ने नाथ सम्प्रदाय में दीक्षा चुनार ( चरणादीगढ़)आने से पूर्व ली या बाद में इस सम्बन्ध में पुख्ता तौर पर कहना मुश्किल है। लेकिन चुनार दुर्ग पर लगे शिलालेखों का प्रमाण माना जाये तो इस दुर्ग का निर्माण ईसा से 56 वर्ष पूर्व उज्जैन नरेश विक्रमादित्य ने इसलिये कराया था ताकि उनके बड़े भाई भृतहरि की तपस्या में कोई विघ्न व् बाधा न पड़े और इस वन क्षेत्र में जंगली जानवर और पशुओं से उनकी रक्षा हो सके। वास्तविकता यह है कि प्राचीन काल से ही विंध्य पर्वतमालाओं को पवित्र तथा साधना के लिए उपयुक्त माना जाता है।

अरबी में औरंगजेब का हुक्मनामा

खुदा के नाम की बन्दगी, मैं समाधि पर आया और मैंने आवाज दी कोई उत्तर नही मिलने पर मैने इसके विरुद्ध खिलाफत किया। मस्जिद बनवाने हेतु इसे तुड़वाया किंतु समाधि पर एक लकीर पैदा हुयी जिससे भौरे निकलना शुरू हुए भौरों को नष्ट करने हेतु इस लकीर में 17 कुप्पा खौलता सरसों तेल छुड़वाया किन्तु न भौरे मरे न छेद भरा तो माफ़ी मांगी और भृतहरि का अस्तित्व माना तथा क़दर करने की बात स्वीकार की। कोई भी बादशाह आये इस समाधि की इज्जत करे और खिलाफत करने की हिम्मत न करे।


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कृष्ण जन्माष्टमी का पर्व भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। शास्त्रों के अनुसार श्रीकृष्ण का जन्म मध्य रात्रि में रोहिणी नक्षत्र में हुआ था। यही कारण है कृष्ण जन्माष्टमी की पूजा रात में की जाती है। इस दिन भगवान कृष्ण की पूजा की जाती है और व्रत रखा जाता है। मंदिर और मठ सहित श्रद्धालु अपने घरों में कृष्ण जन्म से जुड़ी हुई तमाम झांकियां भी लगाते हैं।जितना महत्व भगवान लड्डू गोपाल की पूजा में माखन मिश्री का है, उतना ही खीरे का भी है। मान्यता है कि खीरे के बगैर बांके बिहारी की पूजा अधूरी है। जो कोई भी भगवान श्री कृष्ण को खीरा चढ़ाता है उससे लड्डू गोपाल प्रसन्न होते हैं और उसकी मनोकामना पूर्ण करते हैं। मान्यता है कि पूजा में इस्तेमाल की जाने वाली खीरे में डंठल होनी चाहिए और एक से दो पत्ते भी, तभी वह पूजा में इस्तेमाल करने के लिए सही खीरा है।

खीरे का धार्मिक मान्यतायें

खीरा के बिना श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की पूजा को अधूरा माना जाता है। खास तौर पर डंठल वाला खीरा। खीरा का डंठल गर्भ नाल या नाल फूल का प्रतीक माना जाता है। जिस प्रकार गर्भ से बच्चा बाहर आने के बाद नाल को उससे अलग किया जाता है। उसी तरह भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मध्य रात्रि में डंठल को खीरे से अलग कर भगवान श्रीकृष्ण का जन्म की परम्परा रही है जो सदियों से चली आ रही है।

इस दिन भक्त लड्डू गोपाल के पास खीरा रखते हैं और मध्य रात्रि 12 बजे खीरे को डंठल से अलग कर देते हैं। उत्तर भारत में कई जगहों पर कृष्ण जी का जन्म खीरे से करवाया जाता है। जन्म के समय जिस तरह बच्चे को गर्भनाल काटकर गर्भाशय से अलग किया जाता है, ठीक उसी प्रकार जन्मोत्सव के समय खीरे का डंठल काटकर कान्हा का जन्म कराने की परंपरा है। जन्माष्टमी पर खीरा काटने का मतलब बाल गोपाल को मां देवकी के गर्भ से अलग करना है। खीरे से डंठल को काटने की प्रक्रिया को नाल छेदन कहा जाता है। कुछ जगहों पर खीरे को बीच से काटकर इसमें कृष्ण का बालगोपाल रूप भी रखा जाता है।

ऐसे कराये खीरे से जन्म

भगवान श्री कृष्ण की पूजा में खीरे को शामिल करने से पहले खीरे को शुद्ध पानी से धो लें। अब इस खीरे को भगवान श्री कृष्ण के पास रखें और रात के 12 बजे कृष्ण जन्म के साथ खीरे को किसी सिक्के से काटें और 3 बार शंखनाद करते हुए भगवान के जन्म की बधाई दें। बहुत से जगहों पर इस खीरे को प्रसाद के रूप में सभी में बांटा जाता है। जबकि कुछ जगह खीरे को उस दिन नहीं खाया जाता।

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